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देहरादून की आबो हवा में कितने पाकिस्तान!

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देहरादून वो जगह है, जहां भारत के संविधान की पहली लिखित प्रति तैयार की गई थी। साहित्‍य की बात करें तो देश विदेश के साहित्‍यकारों को ये जगह लिखने पढ़ने के लिए मुफीद लगती है। ऐसे ही हिंदी साहित्‍य के एक पुरोधा हुए हैं कमलेश्‍वर। आज उनकी  पुण्‍यतिथि के बहाने ये बात हम आप से साझा कर रहे हैं। दरअसल, अपने सबसे चर्चित उपन्‍यास कितने पाकिस्‍तान को कमलेश्‍वर ने देहरादून में रहकर ही लिखा था। जिसके लिए उन्‍हें साहित्‍य अकादमी सम्‍मान मिला। झाझरा के वन विश्राम गृह को उन्‍होंने अपना ठिकाना बनाया। वे सपत्‍नीक यहां ठहरे थे। जिसमें उनकी मदद देहरादून के ही रहने वाले वरिष्‍ठ कहानीकार सुभाष पंत ने की थी। आप भी पढि़ए उनके पहले संस्‍करण की भूमिका के कुछ अंश-

इसे मैंने मई, सन् 1990 में लिखना शुरू किया था। घने जंगल के बीच देहरादून के झाजरा वन विश्राम गृह में सुभाष पंत ने व्यवस्था करा दी थी। रसद वगैरह नीचे से लानी पड़ती थी। गायत्री साथ थी ही। साथ में हम अपने 4 बरस के नाती अनंत को भी ले गए थे। एक कुत्ता वहाँ आता था, उससे अनंत ने दोस्ती कर ली थी। उसका नाम मोती रख लिया था। कभी-कभी वहां बहुंरगी जंगली मुर्गे भी आते थे। अनंत उन्हें देखने के लिए दूर तक चला जाता था। जंगल की पगडंडियों से यदा-कदा लकड़हारे आदिवासी गुज़रते रहते थे। एक दिन अनंत मुर्गों का पीछा करते-करते गया तो नजर से ओझल हो गया। गायत्री बहुत ज्यादा चिंतित हो गई। तलाशा, आवाजें लगाईं, घबरा के इधर-उधर दौड़े-भागे पर अनंत का कहीं कोई पता नहीं चला। तभी एक गुजरते बूढ़े ने बताया कि उसने जंगल में कुछ दूर पर एक छोटे बच्चे को लकड़हारे के साथ जाते देखा था…यह सुनकर गायत्री तो अशुभ आशंका और भय से लगभग मूर्छित ही हो गई। आदिम कबीलों की नरबलि वाली परम्परा की पठित जानकारी ने गायत्री को त्रस्त कर दिया था। आशंकाओं से ग्रस्त मैं भी था। मैं गायत्री को संभाल कर, पानी पिला कर, उसे नौकर के हवाले करके फौरन निकला। बू

ढ़े ने जिधर बताया था, उधर वाली पगडंडी पर उतर कर तेजी से चला, तो कुछ दूर पर देखा-एक लकड़हारे के कन्धों पर पैर सामने लटकाए उसकी पगड़ी पर बाँहें बाँधे, किलकारी मारता अनंत बैठा था। लकड़हारे के बायें हाथ में कुल्हाड़ी थी, और वह उसे लिए हुए सामने से चला आ रहा था। जान में जान आई। पता चला, वह अनंत को हिरन और भालू दिखाने ले गया था।
इस घटना ने मुझे आदिम कबीलेवालों को जानने, पहचानने और उनके बारे में पठित तथ्यों से अलग अनुभवजन्य एक और ही सोच दी थी। सात-आठ बरस बाद अनुभव के इसी अंश ने मेरा साथ तब दिया जब मैं उपन्यास में माया सभ्यता के प्रकरण से गुज़र रहा था। बहरहाल… मेरी दो मजबूरियाँ भी इसके लेखन से जुड़ी हैं। एक तो यह कि कोई नायक या महानायक सामने नहीं था, इसलिए मुझे समय को ही नायक-महानायक और खलनायक बनाना पड़ा।

और दूसरी मजबूरी यह कि इसे लिखते समय लगातार यह एहसास बना रहा कि जैसे यह मेरी पहली रचना हो…लगभग उसी अनकही बेचैनी और अपनी असमर्थता के बोध से मैं गुज़रता रहा..आखिर इस उपन्यास को कहीं तो रुकना था। रुक गया। पर मन की जिरह अभी भी जारी है…
दिल्ली: 29-12-99