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उत्‍तराखंड के इस बड़े नेता ने स्‍वेच्‍छा से कहा था राजनीति को अलविदा

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मीडिया लाइव देहरादून : लोकसभा चुनाव की तेज होती सरगर्मियों के बीच राजनीति के कई रंग फिजाओं में तैरते दिख रहे हैं। हर हाल में सत्‍ता या पद पर बने रहने की लालसा के कारण राजनेता कई पैंतरे अपना रहे हैं। नए और युवा नेता खुद के लिए राजनीति में जगह बनाने को बेताब हैं तो पुराने नेता अपनी जगह बनाए रखने की जुगत में हैं, कई नेता तो राजनीति को अपनी बपौती मानकर मरते दम तक इसे साधे रखना चाहते हैं, ऐसे समय में पौड़ी सीट से चार बार सांसद रहे और देश की राजनीति में खास पैठ रखने वाले भक्‍तदर्शन का जिक्र जरूरी है। जिन्‍होंने बड़ा दिल दिखाते हुए स्‍वेच्‍छा से खुद को राजनीति से अलग किया और नए लोगों के लिए राह खोली।

राजदर्शन से बने भक्‍तदर्शन

12 फरवरी, 1912 को पौड़ी जिले के गांव भौराड़, पट़टी साबली, में भक्‍तदर्शन का जन्‍म हुआ था।पिता गोपाल सिंह रावत ने उनका नाम राजदर्शन रखा था, परन्तु राजनीतिक चेतना विकसित होने के बाद जब उन्हें अपने नाम से गुलामी की बू आने लगी, तो उन्होंने अपना नाम बदलकर भक्तदर्शन कर लिया। प्रारम्भिक शिक्षा के बाद उन्होंने डी.ए.वी. कॉलेज देहरादून से इंटरमीडियेट किया और विश्व भारती (शान्ति निकेतन) से कला स्नातक व 1937 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर परीक्षायें पास कीं। शिक्षा प्राप्त करते हुए ही उनका सम्पर्क गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि से हुआ। 1929 में ही डॉ. भक्त दर्शन लाहौर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में स्वयंसेवक बने। 1930 में नमक आंदोलन के दौरान उन्होंने प्रथम बार जेल यात्रा की। इसके बाद वे 1941, 1942 व 1944, 1947 तक कई बार जेल गये।  18 फरवरी 1931 को शिवरात्रि के दिन उनका विवाह जब सावित्री जी से हुआ था, तब उनकी जिद के कारण सभी बारातियों ने खादी वस्त्र पहने। उन्होंने न मुकुट धारण किया और न शादी में कोई भेंट ही स्वीकार की। शादी के अगले दिवस ही वे स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिये चल दिये व संगलाकोटी में ओजस्वी भाषण देने के कारण उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। उन्होंने ‘गढ़देश’ के सम्पादकीय विभाग में कार्य किया। ‘कर्मभूमि’ लैंसडौन के 1939 से 1949 तक वे सम्पादक रहे। प्रयाग से प्रकाशित ‘दैनिक भारत’ के लिये काम करने के कारण उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली। वे कुशल लेखक थे। उनकी लेखन शैली व सुलझे विचारों का पाठकों पर बड़ा प्रभाव पड़ता था। वे 1945 में गढ़वाल में कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक निधि तथा आजाद हिन्द फौज के सैनिकों हेतु निर्मित कोष के संयोजक रहे। उन्होंने प्रयत्न कर आजाद हिन्द फौज के सैनिकों को भी स्वतंत्रता सेनानियों की तरह पेंशन व अन्य सुविधायें दिलवायी थीं।

शिक्षामंत्री के रूप में अभिनव कार्य

1952 में उन्होंने लोकसभा में गढ़वाल का प्रतिनिधित्व किया व कुल चार बार इस सीट पर जीत दर्ज की।सन् 1963 से 1971 तक वे जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री व इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडलों के सदस्य रहे। केन्द्रीय शिक्षामंत्री के रूप में उन्होंने केन्द्रीय विद्यालयों की स्थापना करवायी और केन्द्रीय विद्यालय संगठन के पहले अध्यक्ष रहे। त्रिभाषी फार्मूला को महत्व देकर उन्होंने संगठन को प्रभावशाली बनाया। गांधी जी के हिन्दी के विचारों से प्रेरित होकर उन्होंने केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय की स्थापना करायी। दक्षिण भारत व पूर्वोत्तर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में उनका अद्वितीय योगदान रहा था। संसद में वे हिन्दी में ही बोलते थे। प्रश्नों का उत्तर भी हिन्दी में ही देते थे। एक बार नेहरू जी ने उन्हें टोका तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक कह दिया कि मैं आपके आदेश का जरूर पालन करता, परन्तु मुझे हिन्दी में बोलना उतना ही अच्छा लगता है जितना अन्य विद्वानों को अंग्रेजी में।

राजनीति से संन्‍यास पर इंदिरा की बात भी नहीं मानी

1971 में उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। हालांकि श्रीमती गांधी जी ने उनको ऐसा करने से मना किया, लेकिन अपने सिद्धान्तों के धुनी दर्शन जी ने यह कहकर मना कर दिया कि मेरी उम्र अब सक्रिय राजनीति में रहने की नहीं रह गई है, अब नये लोगों को राजनीति में मौका दिया जाय। वे उन दुर्लभ राजनेताओं में थे, जिन्होंने उच्च पद पर रह कर स्वेच्छा से राजनीति छोड़ी। राजनीति की काली कोठरी में रहकर भी वे बेदाग निकल आये। बाद में उन्होंने अपना सारा जीवन शिक्षा व साहित्य की सेवा में लगा दिया। वे लोकप्रिय जनप्रतिनिधि थे। जिस किसी पद पर भी वे रहे, उन्होंने निष्ठा व ईमानदारी से कार्य किया। वे सादा जीवन और उच्च विचार के जीवन्त उदाहरण थे। बड़े से बड़ा पद प्राप्त होने पर भी अभिमान और लोभ उन्हें छू न सके। वे ईमानदारी से सोचते थे, ईमानदारी से काम करते थे। निधन के समय भी वे किराये के मकान में रह रहे थे। किसी दबाव पर अपनी सत्यनिष्ठा छोड़ने को वे कभी तैयार नहीं हुए। वे ओजस्वी वक्ता थे और इतना सुन्दर बोलते थे कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे।