स्त्री विमर्श: हल चलाने से लेकर बूचड़खाने तक

FacebookTwitterGoogle+WhatsAppGoogle GmailWeChatYahoo BookmarksYahoo MailYahoo Messenger

वरिष्ठ साहित्यकार  नरेंद्र कठैत की कलम से :- 8 जुलाई 1993 को दैनिक अमर उजाला में दिवान सिंह चमियाला का ‘हल चलाने का दुस्साहस’ शीर्षक से एक आलेख छपा था। उसी आलेख के परिपेक्ष्य में 29 जुलाई 1993 को ‘हल चलाती स्त्री और समाज’ शीर्षक के अन्तर्गत अमर उजाला ने मेरे पत्र को स्थान दिया। मेरे पत्र की कुछेक पंक्तियों से चमियाला जी के आलेख , तात्कालीन घटनाक्रम और सामाजिक परिवेश को बखूबी समझा जा सकता है। पत्र में लिखा था-

‘यह कितनी विडम्बना है कि जब कोई गरीब नारी अपना खेत जोतने के लिए पुरूषों से आग्रह करते-करते थक गई और कोई माई का लाल उसके खेत में हल चलाने के लिए राजी न हुआ तो अंततः वह महिला खुद जोखिम उठाकर युग प्रवर्तक काम कर गई। परिणामस्वरूप उसका हुक्का -पानी बंद कर दिया। इस रूढ़िगत समाज में यह उस अबला का दुर्भाग्य नहीं अपितु विजय है कि रूढ़िवादी ताकतों व पुरुष के छद्म  एकाधिकार को चुनौती देती हुई सबलता पूर्वक जीवन व्यतीत कर रही है।

कहना गलत न होगा कि आज पर्वतीय अंचल का अधिकांशतः पुरुष वर्ग पंगु होता जा रहा है। दिन भर किसी घने छायादार पेड़ के नीचे या चैपाल में ताश के पतों के साथ खेलना और सायं ढलते ही कच्ची शराब पीकर पारिवारिक जनों के मध्य कलह उत्पन्न करना उसकी दिनचर्या बन गई है। यदि वे थोड़ा बहुत शिक्षित हैं तो उनकी शिक्षा का सामंजस्य वाह्य जगत से बिल्कुल नहीं है। जाहिर है उनमें व्याप्त इस निष्क्रियता और उत्तरदायित्व की कमी की त्रासदी मां, बहन और समर्पित एव मर्यादित पत्नी को ही भुगतनी पड़ रही है जो कि समाज के उत्तरोत्तर विकास के लिए घातक एवं अभिशाप है।

आगे लिखा था- छदम एकाधिकारी पुरूष उत्तरदायित्यों के प्रति अगर इसी भांति उदासीन रहा तो भविष्य में नारी द्वारा अर्थी को कंधा देकर शमशान घाट तक ढ़ोने तथा संम्पूर्ण अंतिम संस्कारों का संपादन जैसे युग परिवर्तनीय घटनाक्रमों का उदय होगा, इसमें कोई दो राय नहीं।’

ये पंक्तियां लगभग ढ़ाई दशक पूर्व लिखी गई थी। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि इस ढ़ाई दशक के अंतराल में हमनें नारी के अर्थी को कंधा देने तक की दारूणता को करीब से देखा है। किंतु नारी कोे इससे भी ज्यादा संघर्ष के दौर से गुजरना होगा इसकी कल्पना भी नहीं की थी।

स्त्री विमर्श से जुड़ी प्रस्तुत घटना मात्र बहते पानी के सीने पर लिखी गई कल्पित कहानी नहीं है। यह घटना मात्र एक दिन की घटना भी नहीं है। बल्कि अब एक स्त्री की नियमित दिनचर्या और उसके जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुकी।

स्थान – खोलाचौंरी ! देवप्रयाग पौड़ी के बीच 15 किलोमीटर की दूरी। मुख्य सड़क से सटा छोटा सा कस्बा। संकरे मार्ग पर सामने से बड़ा वाहन आता देख सड़क किनारे रफ्तार रोकनी पड़ी। जैसे ही बड़े वाहन ने अपनी राह पकड़ी कि मेरी दृष्टि बाईं ओर कुछ दूर एक खोमचे पर पड़ी। खोमचे में कुछ असामान्य तस्वीर देखी। दूर से खुली आंखों पर जब विश्वास नहीं हुआ तो जिज्ञासा खोमचे की ओर ले गई। पास जाते ही गंडासा, तराजू, तेज छुरी के साथ धुंधली तस्वीर एकदम साफ हुई। लेकिन आश्चर्य हुआ बूचड़खाने की कार्य व्यापारी- एक स्त्री!

विनीत भाव, सामान्य शिष्टाचार के साथ ठेठ गढ़वाली में पूछा- क्या यह दुकान आपकी है?

उत्तर मिला – हां जी!

-आप ये कांट-छांट का काम, कार्य-व्यापार भी अकेले कर लेती हैं?

-वर्षों से कर रही हूं।

-आप एक महिला हैं!

फौरन समझ गई यह प्रश्न स्त्री वर्जना से जुड़ा है। अतः इस प्रश्न पर चुप्पी साध गई।

आगे पूछा- आपके इस कार्य-व्यापार में लोग क्या प्रतिक्रिया करते हैं?

-कई बार असहज स्थिति उत्पन्न हो जाती है। एक बार जैसे आप रुके ऐसे ही एक बस यहां किनारे पर कुछ देर रुकी। बस में बच्चे बूढे़, जवान, औरतें सभी सवार थे। सबसे पहले बच्चों की नजर इधर पड़ी। वे बच्चे मुझे देेखकर जोर से चिल्लाने लगे- अरे वो देखो ! वोे देखो! वोे औरत मुर्गा काट रही है। फिर तो बस में सवार बच्चे, बूढे़ ,जवान, महिलाएं सभी इधर झांकने लगे।

-उस समय आपने क्या किया?

-ये सामने वाला किवाड़ अपनी ओर खींच लिया।

-क्या आप मुर्गे ही …..या बकरे भी…?

-शादी ब्याह का सीजन है जी! आज तीन बकरे…। पर…. अब तो आपके लिए….।

-अरे नहीं! नहीं! मैं तो यूं ही!

इन शब्दों के उच्चारण के साथ ही लगा कि मेरा महिला के कार्य व्यापार में अनावश्यक व्यवधान डालना ठीक नहीं। लेकिन लौटते ही मन में कई प्रश्न एक साथ कौंधे। क्या इस क्षेत्र में भी मां, बहन, बेटी, बहू के लिए हमनें विकल्प खुले छोड़ दिये हैं? या इसे देवभूमि के़े घटते मानदण्डों के रूप में परखें? या नारी के इस रूप को महिला सशक्तिकरण के तौर पर देखें? या इसे स्त्री और पुरूष की बराबरी के संदेश के तौर पर लें?

“स्त्री विमर्श से जुड़े इन तमाम प्रश्नों पर आप भी विचार करें!”