स्वार्थ के वशीभूत होकर हे मनुष्य तू क्या कर पाया
“स्वार्थ”
स्वार्थ के वशीभूत होकर हे मनुष्य तू क्या कर पाया
वही धरती वही अम्बर की छाया
क्या छल कपट मारपीट करके तू भगवान बन पाया
स्वार्थ के वशीभूत होकर हे मनुष्य…………….
तेरे इसी स्वार्थ के कारण तू आगे ना बढ़ पाया
हे मनुष्य विधाता की इस सृष्टि में क्या तू नया कर पाया
तेरे सबसे आगे बढ़ने की चाह ने तुझे ही मार गिराया
स्वार्थ के वशीभूत होकर हे मनुष्य…………….
तेरे भगवान बनने की चाह मे इन्सानों को ही नुकसान पहुँचाया
भूल के प्यार प्रेम, तुझे मोह माया का नशा हो आया
भूल गया तू चार दिन के मेले मे है आया
स्वार्थ के वशीभूत होकर हे मनुष्य…………….
आकर दुनिया में तूने अपना व्यापार फैलाया
किसी को छल से किसी को कपट से है रूलाया
क्या हुआ मनु की संतान को ईश्वर भी समझ ना पाया
स्वार्थ के वशीभूत होकर हे मनुष्य…………….
सदियों की तेरी नई-नई खोज अनुसन्धान ने प्रगति की और कदम बढ़ाया
फिर भी सोच कर देख क्या तू भगवान बन पाया
आज भी है सिर पर तेरे यमराज का साया
स्वार्थ के वशीभूत होकर हे मनुष्य…………….
इन्सान होकर तू इन्सान को न समझ पाया
अपनी खुशी के लिए तूने दूसरों का दर्द भुलाया
अपने सुख के आगे दूसरों के दुख का मजाक बनाया
स्वार्थ के वशीभूत होकर हे मनुष्य…………….
हे मनुष्य कितना भी आगे बढ़ जा तेरा भी अन्त आना है
तूझे भी एक दिन गहरी नीन्द मे सोजाना है
तुझे भी दो लकड़ियों और चार कन्धों पर जाना है
तुझे भी जीवन-मरण के द्वार से गुजरना है
इतनी खोज और अनुसन्धान के बावजूद क्या तू ये चमत्कार कर पाया
जीवन और मृत्यु को, क्या तू वश में कर पाया ?
तेरे मन की अपवित्रता के कारण
तू आज भी इन्सान है, भगवान नहीं बन पाया……
“सुचित्रा भंडारी”