मां के पदों में सुमन सा रख दूं समर्पण शीश को : श्रीदेव सुमन
अजय पुरी, उत्तरकाशी।
स्वाधीनता-हितरधीता से दूं झुका जगदीश को ।
मां के पदों में सुमन सा रख दूं समर्पण शीश को।।
इन क्रांतिकारी शब्दों से स्वयं को ‘बोलन्द बद्री’ यानी बोलते हुए बद्रीनाथ यानी ईश्वर बताने वाले टिहरी नरेश की राजशाही को अपना बलिदान देकर हमेशा के लिए समाप्त करने वाले सुमन (मूल नाम श्रीदत्त बड़ोनी) का जन्म उत्तराखण्ड के टिहरी गढ़वाल जिले के ग्राम जौल में 25 मई 1915 को हुआ था। मात्र 3 वर्ष की अल्पायु मे इसके सिर से पिता का साया उठ गया था. सुमन ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गाँव के ही स्कूल से प्राप्त की।
1930 में उन्होंने मात्र 14 वर्ष की किशोरावस्था में नमक सत्याग्रह’ आन्दोलन मे भाग लेकर श्रीदेव सुमन ने साबित कर दिया था कि उनके अन्दर देश प्रेम की भावना किस हद तक भारी हुई थी. इसके आलावा छोटी सी उम्र में ही श्रीनगर में आयोजित जिला राजनैतिक सम्मेलन में शामिल हुये, तथा इस अवसर पर उन्होंने पंडित जवाहरलालनेहरु को अपने ओजस्वी भाषण से गढ़वाल राज्य की दुर्दशा से परिचित कराया, तथा खुद का मुरीद भी बना दिया। यहीं से उन्होंने ‘जिला गढ़वाल’ और ‘राज्य गढ़वाल’ की एकता का नारा बुलंद किया। साथ ही पूरी तरह से सार्वजनिक जीवन में आते हुए 23 जनवरी, 1939 को देहरादून में स्थापित ‘टिहरी राज्य प्रजा मंडल’ के संयोजक मंत्री चुने गये।
अगस्त 1942 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ प्रारम्भ होते ही उन्हें टिहरी आते समय 29 अगस्त 1942 को देवप्रयाग में गिरफ्तार कर लिया गया और 10 दिन मुनि की रेती जेल में रखने के बाद 6 सितम्बर को पहले ढाई महीने के लिए देहरादून जेल और फिर 15 महीने के लिए आगरा सेंट्रल जेल भेज दिया गया। 19 नवम्बर 1943 को आगरा जेल से रिहा होने के बाद वे फिर टिहरी में बढ़ रहे राजशाही के अत्याचारों के खिलाफ जनता के अधिकारों को लेकर अपनी आवाज बुलंद करने लगे। उन्हें 27 दिसम्बर 1943 को करीब डेढ़ माह में ही पुनः चम्बाखाल में गिरफ्तार कर लिया और 30 दिसम्बर को टिहरी जेल भिजवा दिया गया। 31 जनवरी 1944 को उन्हें दो साल का कारावास और 200 रुपये जुर्माना लगाकर उन्हें काल कोठरी में ठूंसकर भारी हथकड़ी व बेड़ियों में कस दिया। इस दुव्र्यवहार से खीझकर इन्होंने 29 फरवरी से 21 दिन का उपवास प्रारम्भ किया।
इस दौरान उन्हें बेंतों की सजा भी मिली। इस पर उन्होंने 3 मई 1944से राजशाही के खिलाफ जेल में ही 84 दिन की ऐतिहासिक भूख हड़ताल-आमरण अनशन शुरु कर दिया। तमाम उत्पीड़न, उचित उपचार न दिये जाने व लंबे उपवास के कारण 24 जुलाई की रात से ही उन्हें बेहोशी आने लगी और 25जुलाई1944 को शाम करीब चार बजे इस अमर सेनानी ने अपने देश व अपने आदर्शों की रक्षा के लिये 209 दिन नारकीय जीवन बिताने के बाद अपने प्राणों की आहुति दी। कहते हैं कि इसी रात को जेल प्रशासन ने उनकी लाश को एक कम्बल में लपेट कर भागीरथी और भिलंगना नदियों के संगम से नीचे तेज प्रवाह में जलसमाधि दे दी।