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लॉकडाउन और मायूस करने वाला मजदूर दिवस

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मीडियालाइव : खाली रहना खलता है भैया, वो भी हम जैसे मजदूर, जिनके लिए खाली रहने का मतलब भूखे मरना है। यह कहते हुए राजू अहीरवाल के चेहरे पर निराशा के भाव और गहरे हो गए। देहरादून के ब्राहमणवाला इलाके में राजू अपने साथियों के साथ एक मकान में मजदूरी का काम कर रहा था। कोरोना के खतरे के चलते लॉकडाउन हुआ तो उसे भी घर की चिंता सताने लगी। लेकिन ठेकेदार ने भरोसा दिलाया तो रुक गया। यूपी के टीकमगढ़ के रहने वाले राजू जैसे कई मजदूर अब भी शहर में मौजूद हैं। जबकि उनके साथ के कई लोग पैदल चलकर हफ्ता दस दिन में अपने घरों तक पहुंच चुके हैं।

इसके साथ ही उस सच्‍चाई से भी लोग रूबरू हुए जो हमारी व्‍यवस्‍था का सबसे स्‍याह पहलू है। पहली बार पता चला कि हमारी व्‍यवस्‍था इतनी कमजोर है। जिसमें मजदूर सबसे जरूरी तत्‍व है और भूख, भय और गरीबी भी उसके ही हिस्‍से में है। मजदूर के नाम पर सत्‍ता पाने के रास्‍ते तलाशे जाते हैं और हाशिये पर भी मजदूर ही रहता है। मजदूर के नाम पर टनों कागज काले किए जाते हैं, जिनसे अनजान मजदूर ही रहता है। लॉकडाउन क्‍या हुआ कि मजदूरों के जत्‍थे अपने घरों को निकल पड़े। साबित हो गया कि हम इन मजदूरों को एक दिन भी शहर में रहने का भरोसा नहीं दिला सके हैं। जबकि बिना मजदूरों के ये व्‍यवस्‍था एक दिन भी नहीं चल सकती।

इस विडंबना के साथ कोढ़ पर खाज ये कि मजदूरों में बहुत बड़ा तबका असंगठित क्षेत्र का है। जिसका कोई लेखा जोखा सरकारी तंत्र में नहीं है। ऐसे में सरकार से मिलने वाली मदद से करोड़ों ऐसे मजदूर अछूते ही हैं। इस लॉकडाउन के साथ ही मजदूर दिवस भी आ गया। जाहिर है कि मजदूरों के लिए पहले भी इस दिवस के कोई मायने नहीं थे, और इस बार का मजदूर दिवस तो और मायूस करने वाला है। कोरोना संकट के साथ अनिश्चितता का जो माहौल बना हुआ है उसकी सबसे ज्‍यादा मार मजदूरों पर पड़ रही है। रोज कमाकर खाने वाले मजदूरों के सामने भविष्‍य की चुनौती है। इस मानव संसाधन के उपयोग का कोई वैकल्पिक रास्‍ता नहीं निकाला गया तो इसके परिणाम बेहद खतरनाक हो सकते हैं। भूख और असुरक्षा के बाद जिंदा रहने की जो जद्दोजहद शुरू होती है वो आदमी को गलत दिशा में भी ले जा सकती है। जिससे अपराध बढ़ने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।