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भारतीय स्वाधीनता के पितामह, ब्रिटिश संसद में पहले भारतीय सदस्य, देश के पहले प्राध्यापक

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मीडिया लाइव: आप कल्पना कर सकते हैं कि आज से 195 साल पहले भारत किस दौर से गुजर रहा था। क्या ऐसा ही था, जैसा आप हाल के बीते कुछ दशकों से देख रहे हैं। जी नहीं बिल्कुल भी नहीं बल्कि तब भारतीय समाज अपनी क्रूरतम कुप्रथाओं नर बलि और सती प्रथा जैसे अंधविश्वासों में डूबा हुआ था। वहीं दूसरी तरफ ईस्ट इंडिया कंपनी का कुशासन यहां के लोगों का शोषण और उनपर अत्याचार कर रहा था। तब देश की जनता चोर, लुटेरों और अपराधियों के खौप में जीने को मजबूर थी। इसी ने कंपनी सरकार को पूरे भारत में पैर पसारने में एक तरह से मदद की। वह यहां की अबोध व अशिक्षित जनता को लूट कर अपना खजाना भरने पर लगी थी।

ऐसे कठिन और विपरीत हालातों के वक्त ठीक 4 सितंबर 1825 में आज ही के दिन एक गरीब पारसी दंपत्ति के घर में एक बच्चे ने जन्म लिया, जो आगे चलकर भारत की उम्मीद बनता चला गया। जब इस बालक की उम्र महज 4 साल थी, इसके सिर से पिता का साया भी उठ गया। बेसहारा और गरीब विधवा माँ ने बड़े कठिन संघर्ष से अपने बच्चे का पालन-पोषण और शिक्षा की व्यवस्था की। बालक होनहार था, पहली कक्षा से और उच्च शिक्षा तक हमेशा पहली श्रेणी में उत्तीर्ण होता। यह होनहार बालक अब युवा अवस्था मे कदम रख रहा था। जो समाज में चल रहे घटनाक्रमों को बहुत संजीदगी से समझ रहा था, महसूस कर रहा था। उसे घुटन सी होती थी ये सब देख कर। वह इसका हल ढूंढने लगा। चिंतन-मनन और इसे क्रियान्वित करने की कोशिशों में जुट गया। अब उसको इसका हल निकलता दिखने लगा। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि इसका एक ही रास्ता है और वह है हर गरीब व जरूरतमंद को शिक्षित करना। इसी मूल मंत्र से यह शख्स उस वक्त के नाउम्मीद भारत की उम्मीद बन बैठा, जिसका नाम “दादा भाई नौरोजी” था।

दादा भाई ने एम.ए तक की शिक्षा प्राप्त की थी, गणित, विज्ञान उनके प्रिय विषय थे. उस दौर में इतनी उच्च शिक्षा लेने के बाद वे कहते तो किसी भी बड़े पद पर सुशोभित हो कर अमीर बन सकते थे. लेकिन उन्होंने शिक्षा को धन अर्जित कर रुतबा हासिल करने का जरिया नहीं बनाया बल्कि यह निर्णय लिया कि समाज और देश के गरीब लोगों के पैसे से मैंने जो शिक्षा पाई है, वह उसके हित में लगनी चाहिए. उनके शुभचिंतकों ने उन्हें अच्छे पदों पर नौकरी करने की सलाह भी दी, पर नौरोजी कहां मानने वाले थे. उन्होंने निर्णय लिया जीवन में जो कुछ भी करूंगा जनता और देश की भलाई के लिए करूंगा. उन्होंने अपने जीवन का कोई भी पल अपने लिए नहीं जिया.

दादा भाई ने खुद के लिए कभी कुछ चाहा और न कुछ किया. दादा भाई नौरोजी देश के प्रथम प्राध्यापक होने का गौरव हासिल करने वाले पहले भारतीय थे. उन्हें ही प्रथम भारतीय होने का श्रेय जाता है जिन्होंने भारतीय जनता के सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक विकास के लिए कई संस्थाएं स्थपति की. इस के अलावा वे ही पहले भारतीय हैं जिन्हें ब्रिटिश संसद सदस्य होने का सम्मान प्राप्त हुआ दादा भाई उस शाह कमीशन के भारतीय सदस्य नियुक्त हुए , जिसे भारत को आर्थिक न्याय दिलाने के विचार से गठित किया गया था. वे ही पहले भारतीय हैं, जो भारत के लिए स्वशासन की मांग कर भारतीय स्वाधीनता के पितामह कह कर प्रतिष्ठित किये गए.

दादा भाई ने उस दौर में महिला शिक्षा पर भी विशेष ध्यान दिया. उसके लिए समाज के ताने सुने, तिरष्कार झेला. प्रौढ़ों तक को साक्षर बनाने का बीड़ा उठाया. अखबार निकाले, मुफ्त में भारती जनता को बांटने की व्यवस्था तक की. इंग्लैंड जा कर वहां के लोगों के अधिकारों की लड़ाई भी लड़ी. उन्हें भी उनके हक दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. कई कानून पास कराए. ब्रिटेन के लोगो की मुक्त सोच का नतीजा था कि उन्होंने दादाभाई को अपना प्रतिनिधि माना और उन्हें चुनाव लड़ा कर अपने हितों के लिए ब्रिटिश संसद जिता कर भेजा वे वहां के लोगों की आवाज बन गए. उन्हें ब्रिटिश संसद में बहुत इज्जत और मान सम्मान से देखा जाता था. इसके बाद उन्होंने धीरे-धीरे वहां ईस्ट इंडिया कंपनी के कुशासन पर ब्रिटिश संसद का ध्यान आकर्षित करना शुरू किया. जिसमें उन्हें इंग्लैंड के एक बड़े तबके का समर्थन हासिल होता चला गया. यहां तक कि ब्रिटिश शाही परिवार तक कंपनी सरकार की कुशासन की सूचना पहंचने लगी. जिस पर अब गम्भीरता से ध्यान दिया जाने लगा. इस तरह दादाभाई नौरोजी ने भारत के उस भयावह दौर से देश समाज को बाहर निकालने में अपनी भूमिका निभाई. आज उनकी जयंती है. उन्हें कोटि-कोटि श्रद्धाजंली.

इमेज गूगल से साभार: