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जन्म दिन : मन्ना डे, जिनकी आवाज आत्मा को दुलारती थी

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पुष्‍कर सिंह रावत।

हमारी पीढ़ी जब फिल्‍मी गीत संगीत को समझने लायक हुई तो कुमार शानू और उदित नारायण छाए हुए थे। वहीं मोहम्‍मद अजीज, अभिजीत और सुदेश भोंसले का नाम भी बेहतर पुरुष गायकों में शुमार था। लेकिन इस दौर में फिल्‍म संगीत एक तरह से साठ की दशक की छाया मात्र रह गया था। कल सैयां ने ऐसी बॉलिंग करी और चुनरी के पीछे जैसे गीत हिट माने जा रहे थे। शायद ये मजबूरी भी थी।

लिहाजा तुलना होने पर हिंदी फिल्‍म संगीत के उस गोल्‍डन पीरियड के गाने भी खूब सुने जाते थे। तब गीत संगीत के लिए ऑडियो कैसेट और दूरदर्शन पर चित्रहार ही माध्‍यम के तौर पर मौजूद थे।  हैरानी की बात ये है कि साठ के दशक में एक साथ मुहम्‍मद रफी, किशोर कुमार, महेंद्र कपूर, हेमंत जैसे असाधारण गायक हुए। इसके बावजूद इन सबके बीच मन्‍ना डे ने अपनी प्रतिभा का परिचय ही नहीं दिया बल्कि अपनी एक खास जगह बनाई। रफी, किशोर और मुकेश के गीत जहां तन मन पर असर करते थे। वहीं मन्‍ना डे की आवाज आत्‍मा को दुलारती सी लगती थी। खास तौर पर शास्‍त्रीय गायन में उनका कोई तोड़ नहीं था। जिसकी दस्‍तक उन्‍होंने 1956 में फिल्‍म बसंत बहार फिल्‍म में दे दी थी। इस फिल्‍म के गीत केतकी गुलाब जूही में मन्‍ना डे ने शास्‍त्रीय संगीत के सबसे बड़े पुरोधा पंडित भीमसेन जोशी के साथ जुगलबंदी की है।

उसके बाद, लागा चुनरी में दाग को कौन भूल सकता है। निर्बल से लड़ाई बलवान की हो या दीये और तूफान की कहानी मन्‍ना डे की आवाज आध्‍यात्मिकता की अनुभूति कराती थी। इसके अलावा उन्‍होंने अपने समकालीन गायकों को टक्‍कर देते गीत भी पूरी शिदद्त से गाए हैं। जिनमें यारी है ईमान मेरा, ये दोस्‍ती हम नहीं छोड़ेंगे तो सभी को याद होंगे। वहीं एक चतुर नार करके सिंगार, जैसे गीत को उन्‍होंने अपनी आवाज से कालजयी बना दिया। आज मन्‍ना डे का जन्‍मदिन है, इसी बहाने उन्‍हें याद कर उनके गीत गुनगुना लिए। 1 मई सन् 1919 में कलकत्ता में आज ही के दिन वे जन्मे। उनका पूरा नाम प्रबोध कुमार था। फिल्‍मी दुनिया ने उन्‍हें मन्‍ना डे नाम दिया। हिंदी के साथ ही बांग्‍ला और अन्‍य ज़बानों में भी उन्‍होंने गाए हैं। बंगाली होने के कारण बांग्‍ला गायकी में भी लोग उनके बड़े मुरीद हैं।