विरासतसियासत

24 जनवरी: 24 कैरेट के ईमानदार नेता की जयंती

FacebookTwitterGoogle+WhatsAppGoogle GmailWeChatYahoo BookmarksYahoo MailYahoo Messenger

चौबीस जनवरी, आजादी के बाद के इतिहास में काफी अहम दिन है। 1950 में इसी दिन संविधान सभा ने रविंद्र नाथ टैगोर की कविता भारोत भाग्या विधाता के पहले पद जन गण मन को राष्ट्र गान के तौर पर सहमिति दी थी। वहीं डा. राजेंद्र प्रसाद स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बने। लेकिन यहां हम याद कर रहे हैं राजेंद बाबू के ही राज्य बिहार की ऐसी शख्सिकयत को जिन्हें राजनीति में ईमानदारी की सबसे बड़ी मिसाल माना जाता है। उनका नाम है कर्पूरी ठाकुर, जो एक बार उप मुख्यमंत्री दो बार मुख्यहमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधीदल के नेता रहे। यूं तो कर्पूरी ठाकुर उस नाई समाज से आते थे जहां पहले लोग जन्मतिथि लिखकर नहीं रखते थे, लेकिन स्कूली पढ़ाई के दौरान उनकी जन्मतिथि 24 जनवरी 1924 मान ली गई। जिस वजह से हमें भी उन्हें याद करने का बहाना मिल रहा है। स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल रहने वाले कर्पूरी जी का राजनीतिक सफर आजादी मिलने के बाद ही सही मायनों में शुरू हुआ। गैर कांग्रेसवाद का झंडा बुलंद करने वाले अग्रणी नेताओं में वे शामिल थे। आजादी के करीब दस साल बाद सत्तां पाने की होड़ ने राजनीतिक दलों के स्वपरूप को बदलना शुरू कर दिया। बाहुबल धनबल और भ्रष्टागचार राजनीति में अहम किरदार निभाने लगे। ऐसे समय में बिहार की राजनीति में कर्पूरी ठाकुर का उदय हुआ। 1967 के आम चुनाव में राम मनोहर लोहिया की अगुआई में जनता पार्टी ने कांग्रेस को सत्ताु से किनारे करते हुए सरकार बनाई जिसमें कपूर्री ठाकुर को उपमुख्यरमंत्री की जिम्मेकदारी मिली। इसके बाद 1977 के चुनाव में एक बार फिर जनता पार्टी पर लोगों ने भरोसा जताया और पिछड़ी जाति से आने वाले कर्पूरी ठाकुर मुख्यतमंत्री बने। इस दौरान उनका कद काफी उंचा हो चुका था। वाणी में प्रखरता,सहज जीवन शैली व ग्रामीण परिवेश के संस्का रों ने उन्हें। जनता के असल नुमाइंदे के रूप में स्था पित कर दिया।
ईमानदारी की मिसाल राजनीति में जहां भी ईमानदारी की बात होती है वहां कर्पूरी ठाकुर का नाम जरूर लिया जाता है। जब करोड़ों के घोटालों में नेताओं के नाम शामिल हों, राजनीतिक चालें और एक दूसरे को गिराने की होड़ लगी हो, तब कपूरी जैसे नेता भी हुए हैं। जिन्होंनेे आजीवन ईमानदारी के व्रत का पालन किया। आज भी राजनीतिक हलकों में उनकी ईमानादारी के कई किस्से मौजूद हैं। जब वे पहली बार उपमुख्यमंत्री बने तो उन्होंने अपने बेटे रामनाथ को एक खत के जरिए ताकीद किया- उन्होंने सिर्फ तीन बातें लिखीं, तुम इससे प्रभावित नहीं होना, कोई लोभ लालच देगा तो उस लोभ में मत आना, इससे मेरी बदनामी होगी। प्रभात प्रकाशन ने उन पर महमान कर्मयोगी जननायक कर्पूरी ठाकुर शीर्षक से दो खंडों में किताब प्रकाशित की है, जिसमें उनकी ईमानदारी के कई दिलचस्पय किस्से सहेजे गए हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यरमंत्री रहे कद्दावर नेता हेमवती नंदन बहुगुणा ने अपने संस्मरण में लिखा है कि कर्पुरी जी की आर्थिक तंगी को देखते हुए एक बार देवीलाल ने पटना में अपने एक हरियाणवी मित्र से कहा कि कर्पूरी जी अगर कभी कुछ मांगें तो पांच दस हजार रूपए देकर उनकी मदद कर देना, कुछ समय बाद इस बाबत जब देवीलाल ने अपने मित्र से पूछा तो उन्होंने बताया कि कर्पूरी जी कभी कुछ मांगते ही नहीं हैं।
1952 में विधायक बनने के बाद कर्पूरी ठाकुर अपने पूरे जीवनकाल में कोई भी विधानसभा चुनाव नहीं हारे। दो बाद मुख्यमंत्री के रूप में बिहार के सत्ता शीर्ष पर रहने और लंबे राजनीतिक जीवन के बावजूद वे बेदाग रहे। 17 फरवरी 1988 को जब उनका निधन हुआ तो विरासत में कोई संपत्ति नहीं थी। ना तो समस्तिपुर में ना पटना में और ना ही पितौंझिया (अब कर्पूरीग्राम) में मकान तो क्या एक  इंच जमीन भी नहीं छोड़़ गए, यानी उन्होंने ईमानदारी के अलावा कोई दूसरी संपत्ति नहीं जुटाई !