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रंगों को सुरों में ढाल देती थी उनकी शहनाई

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मीडियालाइव: आज होली पर ऐसा संयोग बना है कि आज ही शहनाई के उस्‍ताद भारत रत्‍न  बिस्मिल्‍लाह खां की जयंती भी है। सादगी के साथ सुरों को तराशने वाले इस महान फनकार को इसी बहाने याद कर लिया जाए। बिहार के डुमरांव गांव के पैगंबर खान उस इलाके के राजदरबार में शहनाई बजाया करते थे। बाद में वे बनारस चले आए जहां संगीत का बेहतर माहौल था। बनारस में ही पैगंबर खां ने अपने बेटे बिस्मिल्‍लाह के नन्‍हे हाथों में ही शहनाई थमा दी थी। ये उनका खानदानी पेशा जो था। हालांकि बिस्‍मिल्‍लाह की मां इसके खिलाफ थी। उस दौर में शहनाई बजाना हल्‍का काम माना जाता था। लेकिन किसी को भी नहीं मालूम था कि सुरों को असली साधक मिल गया है। शहनाई को उसकी मंजिल मिल गई थी। बालक बिस्मिलाह ने तालीम लेनी शुरू कर दी। उसने सुरों के साथ खुद को मानो घोल लिया। मेहनत और लगन ने उसे कमाल का शहनाई वादक बना दिया था, पर ये तो बस शुरुआत थी। बिस्मिला खां शहनाई के स्‍वरों को विस्‍तार देने लगे। जैसा कि पहले कभी नहीं हुआ था। उन्‍होंने चैती और कजरी जैसी लोकधुनों को शहनाई से साधा। साथ ही शहनाई पर सभी शास्‍त्रीय रागों को भी उतार दिया। कभी दरबारों, मंदिरों और शादी ब्‍याह में बजाया जाने वाला यह लोकवाद्य को उन्‍होंने शास्‍त्रीय संगीत का हिस्‍स बना दिया। उन्‍हें दुनिया का सबसे बेहतरीन शहनाई वादक माना जाने लगा। शहनाई और बिस्मिला एक दूसरे के पर्याय हो गए थे। 21 मार्च 1916 को बिहार के डुमरांव में पैदा हुए बिस्मिलाह खां देश के आजाद होने तक काफी नाम कमा चुके थे। अब उन्‍हें उस्‍ताद बिस्मिल्‍लाह खां कहा जाने लगा। पंडित जवाहरलाल नेहरू के बुलावे पर उन्‍होंने 15 अगस्‍त 1947 को लालकिले पर तिरंगे के नीचे आजाद भारत के पहले सुर बिखेरे थे। फकीरी मिजाज के बिस्मिलाह खां ने फिल्‍मों के लिए भी शहनाई की धुनें दी। आज हम जिस गंगा जमुनी तहजीब की बात करते हैं, वे उसके प्रतीक थे। बनारस में रहते हुए उन्‍होंने शहनाई की तालीम ली थी, और गंगा किनारे घंटों रियाज कर खुद को तराशा। जितनी आस्‍था वे अपने धर्म में रखते थे उतनी ही गंगा और काशी विश्‍वनाथ में रखते थे। मुहर्रम पर वे अपनी खास चांदी की शहनाई बजाते हुए आगे चलते थे, तो विश्‍वनाथ समेत बनारस के हर मंदिर की ईश आराधना में उनकी शहनाई गूंजती थी। भारत रत्‍न, पद्म विभूषण, पद्मश्री समेत उन्‍हें कई पुरस्‍कारों से नवाजा गया था। इतना बड़ा फनकार होने के बावजूद उनकी सादगी की मिसालें दी जाती थी। कहा जाता है कि वे खुद ताउम्र यही कहते रहे कि “ज़िन्दगी भर तरसता रहा कि इंशा अल्लाह एक तो सही सुर लग जाए! गर लगा है तो उसकी मेहरबानी!” 21 अगस्‍त 2006 को उनका निधन हुआ तो लगा भारतीय संगीत के युग का अवसान हो गया।