जयंती विशेष : विज्ञान को समर्पित इस भारतीय वैज्ञानिक को याद करने का दिन
मीडिया लाइव : प्रतिभाएँ किसी परस्थितियों मोहताज नहीं होती हैं। शिक्षा व तकनीकी का विकास सम्रज्यवादी देशों में अन्य के मुकाबले पहले व तेज़ी से हुआ। इसका फायदा उठाते हुए इन देशों ने अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी में दुनियभर में बेतहाशा लूट मचाई। बावजूद इसके उस दौर में भारत ने अपने बहुलतावादी सामाजिक और भौगोलिकता के बावजूद उनसे ही शिक्षा को प्रमुखता ग्रहण कर आगे बढ़ने का रास्ता तय किया। क्योंकि भारत भूमि हमेशा से ही विद्वानों की भूमि मानी जाती रही। यहाँ समय-समय पर प्रतिभाओं ने जन्म लिया। जब-जब उन्हें पल्ल्वित और पोषित किया गया उन्होंने अपने ज्ञान का लोहा मनवाने में कोई कसार नहीं छोड़ी।
आज हम बात कर रहे हैं ऐसी ही एक महान सख्शियत की जिन्होंने शिक्षा-ज्ञान-विज्ञान की दुनिया में अपना लोहा मनवाया। आज भारत के महान वैज्ञानिक चंद्रशेखर वेंकट रमण की जयंती है। जिस समय यूरोपीय व अमेरिकी वैज्ञानिक लगातार नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हो रहे थे, ऐसे में भारतीय विज्ञानी सीवी रमण ने यह गौरव हासिल कर देश-दुनिया में भारत के माथे पर चारचांद लगा दिए।
विश्व विख्यात भौतिकशास्त्री सी. वी. रमण का जन्म 7 नवंबर, 1888 को तमिलनाडु के त्रिचिरापल्ली के एक बेहद सामान्य परिवार में हुआ। इनके पिता भौतिक विज्ञान और गणित के शिक्षक थे। यही बड़ी वजह रही कि पिता के भौतिकी और गणित के शिक्षक होने का इनकी विज्ञान के प्रति गहरी रूचि पैदा हुई होगी। हालाँकि शिक्षा को लेकर इनकी विशेष प्रतिभा का ये असर रहा कि इन्होंने महज 11 साल की उम्र में हाई स्कूल और मात्र 13 साल में इंटरमीडिएट की परीक्षा पास कर ली थी, जिसे तब उच्च माध्यमिक परीक्षा कहा जाता था।
विज्ञान में इनकी गहरी रुचि को देखते हुए इनके अध्यापक पिता ने इन्हें उच्च के लिये विदेश भेजने का मन बनाया, लेकिन स्वास्थ्य कारणों के चलते वे देश से बाहर जाकर अपनी उच्च शिक्षा की पढ़ाई नहीं कर पाए। इसके बाद स्नातक की डिग्री के लिये मद्रास विश्वविद्यालय के प्रेसीडेंसी कॉलेज में उन्होंने पढ़ाई शुरू कर दी। और साल 1905 में स्नातक की परीक्षा फर्स्ट डिवीजन में पास कर गोल्ड मैडल हासिल किया। 1907 में इसी प्रेसीडेंसी कॉलेज से उन्होंने पीजी की डिग्री हासिल की और ऐतिहासिक रूप से सबसे ज्यादा अंक लाने में सफल हुए।
इनके मार्ग को और भी अधिक परिष्कृत करें में प्रोफेसर आर. एल. जॉन्स की बड़ी भूमिका रही। स्नातकोत्तर के वक्त इनकी प्रतिभा के कारण प्रोफेसर इन्हें कक्षाओं से छूट देते थे, ताकि प्रयोगशाला में वे अपना पूरा समय बिता सकें। यही वजह रही की इसी दौरान प्रकाश किरणों पर इनका अध्ययन विस्तृत हो चुका था। इनके शिक्षकों ने इन्हें लगातार सलाह देते रहें कि जो शोध कार्य चल रहा है, उसे लगातार लिखकर उसे शोधपत्र पत्र तैयार करते रहें। उस दौर में विज्ञान कि एक प्रतिष्ठित पत्रिका ब्रिटेन के लंदन से प्रकाशित होती हुआ कराती थी जिसका नाम फिलॉसोफिकल पत्रिका था। उसमें इनका पहला शोध पत्र नवंबर अंक में 1906 में प्रकाशित हुआ। इसके साथ ही रमन एक वैज्ञानिक के रूप में अपनी आधारशिला रखने में कामयाब हुए ।
जब ये स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहे थे उस दर में ब्रिटिश सरकार एक प्रतियोगी परीक्षा आयोजित कराती थी। इन्हें उस परीक्षा में बैठने का मौक़ा मिला और ये वित्त विभाग के लिये आयोजित परीक्षा को पास करने में सफल हो गए। इसके बाद इनका वित्त विभाग में अधिकारी के पद पर चयन हो गया। जिसमें इन्होने सहायक महालेखापाल के पद पर कलकत्ता में नौकरी ज्वाइन की। उनके लिए नौकरी महज़ रोज़गार का साधन भर थी। यही वजह है कि उनका मन उस क्षेत्र में नहीं रमता था। रमन के मन में विज्ञान का जुनून बरकरार रहा।
कलकत्ता उस दौर में देश का सबसे प्रमुख शहर था इसलिये नई गतिविधियों का अड्डा भी वहीँ था। भारत में शोध व विज्ञान के विकास के लिये 1876 में वहाँ पर ‘इंडियन एसोसिएशन फॉर कल्टिवेशन ऑफ साइंस’ की स्थापना की जा चुकी थी। रमन ने वहाँ रहते हुए इस संस्था के बारे में पता चला, तो उन्होंने उस संस्थान को अपने शोध कार्य के लिये इस्तेमाल करना शुरू किया।
सुबह 10 से सायं 5 की नौकरी के चलते भी सी. वी. रमण सुबह ड्यूटी जाने से पहले प्रयोगशाला जाते व शाम को छुट्टी के बाद भी प्रयोगशाला पहुँच जाया करते। यह उनकी विज्ञान के प्रति लगन को दर्शाता है। जबकि कलकत्ता में उनका पहला मुख्य काम वित्त विभाग की नौकरी करना था। क्योंकि वे यहाँ प्रयोगशाला के लिये नहीं आए थे। ऐसे में विभागीय प्रक्रिया के तहत उनका ट्रांसफर पहले रंगून, फिर नागपुर हुआ इससे एक लय में चल रहे शोध कार्यों में बाधा पहुंचनी लाजमी थी, क्योंकि शोध के लिए एकाग्रता की जरूरत होती है।
अच्छी बात रही कि साल 1911 में इनका प्रमोशन के साथ स्थानांतरण एक बार फिर कलकत्ता हो गया। इसके बाद रमण ने वहाँ अपना शोधकार्य आगे बढ़ाया। भौतिकी में विषेशज्ञता के चलते 1917 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में उन्हें भौतिक शास्त्र के प्रोफेसर पद पर नियुक्त कर दिया गया। एक विभाग में उच्च अधिकारी होने और बतौर प्रोफेसर कम वेतन पर नौकरी स्वीकार कर लेना भौतिक विज्ञान में रमन का विज्ञान में रुचि का ही परिणाम था। इसके परिणाम स्वरुप आख़िरकार कलकत्ता में दोबारा आना उन्हें पूरी तरह से वैज्ञानिक रूप में तब्दील कर देने वाला साबित हुआ।
सी. वी. रमण का व्यक्तित्व अपने कार्य को लेकर गंभीर व जुनूनी स्तर का था। जब उन्होंने अध्यापकीय जीवन में प्रवेश किया तो एक अध्यापक के दायित्व को पूरी निष्ठा के साथ निभाया। जैसा कि मना जाता है कि कोई भी महान शिक्षक नयी पीढ़ी को और बेहतर बनाने के लिये प्रेरित करता है। इसके लिए रमन अपनी प्रयोगशालाओं में विद्यालयी छात्र-छात्राओं को आमंत्रित करते थे। वे भाषण देते थे व बच्चों को नए-नए यंत्रों से परिचित कराते थे, ताकि उनके मन में इन विषयों के प्रति जिज्ञासा पैदा हो। वे छोटे-बड़े विद्यालयों के आग्रह पर वहाँ नई पीढ़ी से मिलने जाया करते थे। विज्ञान केवल किताबी ज्ञान न बन जाए इसलिये वे सभी को अपने आस-पास की घटनाओं में विज्ञान खोजने या देखने की बात करते थे, जिससे लोग आसानी से विज्ञान के साथ जोड़ सकें। रमन ने अपनी प्रयोगशाला में अपने साथ कुछ अच्छे नए शोध सहायक रखने शुरू किये। इस तरह आगे के सालों में उन्होंने नए व उभरते हुए वैज्ञानिकों का एक समूह खुद की मेहनत प्रेरणादायी व्यक्तित्व से तैयार किया। इससे हुआ ये कि उन्हें देश में वैज्ञानिकों की नई पीढ़ी के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज काने में मदद मिली।
1917 लंदन में ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के विश्वविद्यालयों के कांग्रेस में भारत का प्रतिनिधित्व सी. वी. रमण ने ही किया। इसके बाद 1921 में ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड में विश्वविद्यालय कांग्रेस के लिये इन्हें एक बार फिर बुलाया गया। यह यात्रा उनके जीवन में एक नया मोड़ लाने वाली साबित हुई।
यह जलीय मार्ग की उबाऊ यात्रा एक रमन को चिंतन का नया अवकाश देने वाली यात्रा साबित हुई। वे समुद्र के नीले रंग व आकाश के नीले रंग को लेकर सोचने लगे कि इनका रंग नीला ही क्यों है? इससे पहले वैज्ञानिकों का यह मानना था कि सागर का नीला रंग इसलिये है क्योंकि वह आकाश का प्रतिबिम्ब है। सी. वी. रमण को इस मान्यता से असंतोष था, उन्हें लगता था उसका नीलापन आकाश के प्रतिबिम्ब की वजह से नहीं था। यह उनके शोध के लिये एक नया विषय बन गया था। ब्रिटेन से लौटने के बाद वे इसी विषय पर शोध में जुट गए।
अध्ययन में उन्हें पता चला कि जब प्रकाश किसी वस्तु पर पड़ता है, तो प्रकाश के स्पेक्ट्रम में कई तरह के बदलाव दिखाई देते हैं। जब समुद्र के पानी पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है, तो प्रकाश के नीले रंग के स्पेक्ट्रम में प्रसरण दिखाई देता है। यह उसके नीलेपन का प्रमुख कारण है। प्रकाश के प्रकीर्णन के समय नीले रंग को छोड़कर सभी रंग अवशोषित होकर ऊर्जा में परिवर्तित हो जाते हैं, लेकिन नीला रंग परावर्तित हो जाता है, जिस वजह से समुद्र का रंग नीला दिखाई देता है। उनकी इस खोज और उसके तार्किक उत्तर ने पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों में एक हलचल मचा दी। प्रकाशिकी के क्षेत्र में विस्तृत अध्ययन के लिये 1924 में रमण को लंदन के अति प्रतिष्ठित ‘रॉयल सोसाइटी’ का सदस्य बनाया गया। यह किसी भी भारतीय के लिये गौरव का विषय बना।
रमण का शोध यहीं नहीं रुका। उन्होंने प्रकाश के प्रसरण अर्थात् बिखराव पर अपना शोध जारी रखा। जब प्रकाश को एक छोटे से छेद से गुजारा गया उसके बाद उसे कई पदार्थों के मध्य गुजारा गया तो दूसरी ओर बिखरा हुआ स्पेक्ट्रम देखा गया। लेकिन इसके अतिरिक्त कुछ और रेखाएँ भी वहाँ देखने को मिली जिससे निष्कर्ष यह निकाला गया कि शायद यह पदार्थ की अशुद्धता के कारण उभर रही हैं। लेकिन जब उन पदार्थों के शुद्ध रूप से प्रकाश गुजारा गया तो भी अन्य रेखाएँ देखी गयीं। इससे पूर्व में कॉम्पटन प्रभाव के कारण ऐसी घटना एक्स किरणों के प्रयोग के साथ देखी गयीं थी जिस कारण 1927 में ए.एच. कॉम्पटन को नोबेल पुरस्कार भी मिला।
रमण ने समझा कि शायद यह वही कॉम्पटन प्रभाव है। यह उस समय नया सिद्धांत था कि प्रकाश तरंग व कण दोहरी प्रवृत्ति की तरह व्यवहार करता है। प्रकाश जब कण की भाँति व्यवहार करता है तो फोटॉन कण जिस पदार्थ में से गुजरता है उसके अणुओं पर आघात करता हुआ आगे बढ़ता है। इस वजह से पदार्थ के अणुओं में कंपन दिखाई देता है। इसमें फोटॉन की कुछ ऊर्जा गुजरने वाले पदार्थ के अणुओं की ऊर्जा के पास स्थानांतरित हो जाती है। यहाँ फोटॉन कुछ ऊर्जा छोड़ देते हैं जिसके कारण स्पेक्ट्रम पर अन्य रेखाएँ उभरती हैं। यह ही रमण प्रभाव के रूप में जाना जाता है। वर्तमान में इस तरह का प्रयोग कर पदार्थ की आंतरिक संरचना का अध्ययन किया जाता है। जो घटना रमण प्रभाव के रूप में जानी जाती है वह पहली बार 28 फरवरी 1928 ई में प्रकाश में आई। विज्ञान की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘नेचर’ ने उनके इस खोज को आगे बढ़कर तुरंत प्रकाशित किया।
रमण संगीत के भी अच्छे ज्ञाता रहे। संगीत में गहरी रुचि होने का ही यह परिणाम था कि उन्होंने अनेक वाद्य यंत्रों का अध्ययन कर विश्व में यह साबित करने का प्रयास किया कि भारतीय वाद्य यंत्र भी पश्चिम की तरह ही अनोखे और बेजोड़ हैं। उन्होंने संगीत की शिक्षा ग्रहण की और वाद्य यंत्रों की ध्वनियों पर अनुसंधान कार्य किया। उनका एक लेख जर्मनी के विश्वकोश में प्रकाशित हुआ था ।
1933 से 1948 तक इन्होंने बंगलुरु स्थित ‘इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंसेज’ के संचालन का कार्यभार संभाल। इसके बाद बिना किसी सरकारी सहायता के उन्होंने बंगलुरु में ही अपने निजी संस्थान ‘रमण रिसर्च इंस्टिट्यूट’ की स्थापना की। उनकी दूरदृष्टि और परिश्रम इस संस्थान में आज भी झलकती है। रमण ने संदेश दिया कि हमेशा प्राकृतिक घटनाओं की छानबीन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही करनी चाहिये। वे अपने संस्थान में जीवन के अंतिम समय तक शोध कार्य करते रहे ।
रमण में नोबेल पुरस्कार जीतने का पूरा आत्मविश्वास था यही वजह रही कि विज्ञान के क्षेत्र में अपने महान शोध के जरिए इसे हासिल करने में कामयाब रहे। उन्हें ‘रमण इफेक्ट’ के लिये 1930 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया, तब रमण महज 42 साल के थे। इतनी काम उम्र में उन्हें कई अन्य पुरुस्कार मिले, लेकिन नोबेल पुरस्कार से उनके साथ देश का मान भी पूरी दुनिया में बढ़ गया। वे पहले एशियाई एवं अश्वेत थे जिन्हें विज्ञान क्षेत्र में नोबल पुरस्कार दिया गया। इस पुरस्कार के कारण भारतीय विज्ञान विश्व की नज़रों में आया और प्रशंसा का पात्र बना।
भारत के महान विज्ञानी सीबी रमण को लेनिन पुरस्कार जैसे अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। बाद में देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से भी उन्हें नवाजा गया। उनका पूरा जीवन और प्रयोगशालाओं में की गयी कठिन मेहनत आने वाली पीढ़ियों के लिये एक बड़ी मिसाल है। इससे उनके बाद की पढियों को यह सीख मिलती है कि किस तरह बेहद कम संसाधनों में भी प्रतिभाएँ खुद को बेहतरीनी ढंग से तराश कर निखार सकती हैं।