हरियाली पर आता हर संकट गौरा की याद दिलाएगा
मीडियालाइव : किसी ने खूब ही कहा है कि जंगलों को बचाना पर्यावरण के लिए नहीं बल्कि मानव के लिए जरूरी है। जंगल नहीं बचेंगे तो मानव जीवन के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कुछ इसी भाव के साथ शुरू हुआ था ऐतिहासिक चिपको आंदोलन, जिसकी नायिका थी गौरा देवी। आज ही के लिए 26 मार्च 1973 के दिन चमोली जिले के रैणी गांव की 27 महिलाओं ने एक ऐसा आंदोलन छेड़ा जिसे पूरी दुनिया में आज तक सराहा जाता है। गौरा देवी की अगुआई में जंगल के ठेकेदारों का ललकारते हुए ये महिलाएं पेड़ों से चिपक गईं। यानी आज ही के दिन वन पर्यावरण को बचाने के लिए ऐतिहासिक चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई थी। जिसे बाद में सुंदरलाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट, धूम सिंह ने जैसे पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने आगे बढ़ाते हुए पूरे उत्तराखंड में विस्तार दिया। ये उस दौर की बात है जब उत्तराखंड के गांवों में स्कूली शिक्षा बहुत दूर की बात थी। लिहाजा लाता गांव की गौरा के लिए भी स्कूल जैसी कोई चीज नहीं थी। महज 12 साल की उम्र में उनका विवाह नजदीकी रैणी गांव के किसान मेहरबान सिंह के साथ हो गया था। शादी के दस साल बाद ही मेहरबान सिंह की मौत हो गई। जिससे गौरा देवी को अपने बच्चों के पालन पोषण में काफी दिक्क्तों का सामना करना पड़ा। गांव के अन्य लोगों की तरह गौरा देवी का जीवन भी गांव के आस पास के जंगलों पर निर्भर था। जहां से उन्हें फल, फूल, सब्जी, पानी, चारा आदि मिलता था। पर्यावरणविद वंदना शिवा की चिपको आंदोलन पर लिखी किताब बताती है कि 1973 में सरकार ने एक ठेकेदार को केदार घाटी के जंगलों के 300 पेड़ नीलाम कर दिए थे। जहां ग्रामीणों के विरोध के कारण उसे लौटना पड़ा। लेकिन इसके बाद वो अलकनंदा घाटी की ओर बढ़ा। रैणी गांव की घास काट रही महिलाओं ने जब कुछ लोगों को हाथों में कुल्हाड़ी लिए हुए देखा तो वे सकते में आ गईं। पेड़ों को कटने से रोकने के लिए गौरा देवी की अगुआई में विरोध शुरू हो गया। 27 महिेलाओं ने छोटी-छोटी टुकडि़यां बनाई और पेड़ों से चिपक गईं। गंगा देवी, रुपसा, भक्ति, मासी, हरकी, मालती, फगली और बाला देवी जैसी कई महिलाओं ने उनके कंधे से कंधे मिलाया दस साल बाद गौरा देवी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि जंगलों के कटने से प्राकृतिक विपदाओं का आना तय है। इसके बाद चिपको आंदोलन को और भी तेजी मिली. आंदोलनकारियों ने मांग की कि उत्तर प्रदेश के सभी पहाड़ी जिलों में जंगलों के व्यवसायिक दोहन पर पूर्ण प्रतिबंध लगे. इस पूर्ण प्रतिबंध की मांग की सबसे मजबूत पैरवी भी हिमा देवी नाम की एक 50 वर्षीय महिला ने ही की. हिमा देवी ने गांव-गांव घूमकर लोगों को यह संदेश दिया कि ‘मेरी बाकी बहनें इस वक्त खरीफ की फसल लगाने में व्यस्त हैं. मैं अपनी सभी बहनों का संदेश लेकर आप लोगों के बीच आई हूं कि हमें पेड़ों को बचाने की लड़ाई लड़नी है’। गौरतलब है कि इस आंदोलन की मांगों को बाद में सरकार ने वन नीति में शामिल किया। वरिष्ठ पत्रकार राजू गुसांई के मुताबिक समय के साथ गौरा देवी का संघर्ष और प्रासंगिक होता जाएगा। जिस तरीके से दुनिया भर में जंगल कम हो रहे हैं और पर्यावरणीय संकट देखे जा रहे हैं, ऐसे में गौरा देवी जैसे लोगों से ही प्रेरणा ली जा सकती है।