अच्छाई और बुराई के लिए स्त्री या पुरुष होना कोई प्रमाण नहीं
विपिन कंडारी, देहरादून।
नमस्कार ! अंतराष्ट्रीय महिला दिवस की शुभकामनाएं. क्या इतना भर कह देने से महिलाएँ सशक्त हो जाती हैं. क्या पुरुषों की अपेक्षा एक महिला का दूसरी महिला के साथ खड़ा होना सबसे पहली जरूरत है. बिना किसी लैंगिक भेद भाव के क्योंकि सही और गलत होने के लिए कुदरत ने महिला-पुरुष में ये अंतर नहीं किया है. लेकिन महिला का महिला के साथ किन विषयों पर साथ बेहद जरूरी जब एक सही महिला गलत पुरुष के साथ खड़ी हो जाती है. या एक सही पुरुष गलत महिला के साथ खड़ा दिखता है. महिलाओं की अपनी लैंगिक समस्याएं हैं, जिनसे तकरीबन वे जीवन के महत्वपूर्ण समय में दो-चार होती हैं. कई बार तो उनकी जिंदगी पर आ बनती है. यहां तक कि सैकड़ों की संख्या में महिलाओं को छोटी सी लापरवाही की वजह से अपनी जान तक गवांनी पड़ती है. यह सिर्फ इसलिए होता है कि कुदरती तौर पर ये अंतर उनमें पाया जाता है.
अब बात आती है सही मायनों में महिलाओं को सशक्त बनाने की. आज भारत जैसे देश में महिलाओं के सामने बहुतेरे समान अवसर उपलब्ध हैं, लेकिन देश की विभिन्नता और बहुलतावादी जीवन शैली और सामाजिक ढांचा सब को यह सहूलियत नहीं देता. ग्रामीण महिलाओं और शहरी और अर्द्ध शहरी महिलाओं की अपनी अलग समस्याएं हैं अपने मुद्दे हैं. रूढ़िवादी सोच से अभी देश के बहुतेरे हिस्से को निकालना बेहद कठिन है. मानसिक तौर पर इसमें परिपक्वता आने में लंबा वक्त लगेगा. शिक्षा का स्तर सिर्फ यहां ज्यादा अंक हासिल करने, महज साक्षर बनने और एक बेहतर नौकरी हासिल करना है. यह ननजरिया महिलाओं और पुरुषों में एक समान देखने को मिलता है. हमारी शिक्षा हमें उस स्तर पर ले जाने में आंशिक तौर पर नजर आती है, जहां आपके मन- मस्तिष्क में सवाल पैदा होते हों. कुछ रचनात्मकता जन्म लेती हो. पढ़ना-लिखना महत्पूर्ण माना जाता है. सीखना और उसे व्यवहार में लाना कम ही देखने को मिलता है. स्कूली कॉपी-किताबों में पढ़ाया लिखाया और सिखाया व्यवहार में कम ही देखने को मिलता है. नारी को पूजने के बातें महज किस्से-कहानियों या फिर धार्मिक मान्यताओं के कारण केवल क्षणिक व्यवहार में देखी जा सकती हैं. किताबी व प्राकृतिक और व्यवहारिक तौर पर सीखने चलन कम ही अनुभव किया जा सकता है. यही कारण है कि महिलाओं और पुरुषों के बीच असामनता की खाई सदियों से खत्म नहीं हो पाई है. दुनिया भर में दोनों महिला-पुरुष समुदाय में एक होड़ का सा आभास कराने की कोशिश नजर आती है. जबकि दोनों में कोई फर्क नहीं होना चाहिए. दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. लेकिन एक पुरुष होने का दम्भ भर रहा है, दूसरा खुद को शोषित और पीड़ित बताने में जुटा है. जबकि अगर आप समाज में घटित हो रही घटनाओं को बारीकी से अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि कई महिलाओं ने पुरुषों का जीना मुहाल कर रखा है. लेकिन ये बातें समाज में आपको महिलाओं से ही देखने और सुनने को मिल जाएंगी. हालांकि ऐसे मामले आंकड़ों के लिहाज से बेहद कम हैं. लेकिन ऐसे में क्या मानव जात की इन दोनों कृतियों में ये होड़ खत्म हो सकती है. शायद कभी नहीं. क्योंकि संतुष्टि का कोई अंतिम केंद्र बिंदु या लक्ष्य नहीं होता. जिस हासिल करने से समानता आ जाएगी. इसके लिए जरूरी तत्व ये हो सकते हैं कि हम एक-दूसरे को सम्मान देते रहें एक दूसरे को पूरक माने. एक दूसरे की जरूरतों ,भावनाओं और आर्थिक, सामाजिक और प्राकृतिक आजादी को सम्मान देने के लिए खुद को तैयार करें. न कि सिर्फ एक दूसरे को इसलिए नीचा दिखाने की प्रवत्ति को न पनपने दें कि वह आपसे अलग लैंगिक पहचान रखता है और आप से कमतर है. क्योंकि अच्छाई और बुराई के लिए स्त्री या पुरुष होना कोई प्रामाणिक तत्व या तथ्य नहीं होता है.