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इंटरनेट से पढ़ाई: निजी संस्थाएं भी आ रही आगे, हर जरूरत मन्द बच्चे तक पहुंचे शिक्षा का डिजिटलीकरण

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मीडिया लाइव: कोरोना संक्रमण से बचाव को देखते हुए देश दुनिया में शिक्षण संस्थाएं अचानक बंद करनी पड़ी. इसके बाद बच्चों की पढ़ाई को सुचारू रूप से चलाने के लिए विकल्प तलाशे जाने लगे, एक मात्र सुरक्षित राह दिखी इंटरनेट के जरिये ऑनलाइन पढ़ाई जिसमें गूगल मीट, जूम, हैंग आउट , व्हाट्सएप आदि का उपयोग करते हुए छात्रों को उनके घर पर पढ़ाने का प्रयास शुरू किया गया. । तमाम कठिनाइयों के बावजूद लोग इन माध्यमों के जरिये शिक्षण-पाठ्यक्रम संचालित कर रहे हैं. इसमें निजी क्षेत्र के स्कूल तो काम कर ही रहे हैं लेकिन सरकारी स्कूलों की अपनी दिक्कतें हैं. इन्ही के साथ ताल-मेल बिठाकर कुछ विद्यालयों में शैक्षिक गतिविधियां चलाई जा रही हैं. इसमें कुछ गैरसरकारी सामाजिक संगठन और शिक्षक अभिभावकों के प्रयासों से पढ़ाई की जा रही है.

उत्तराखण्ड में लगातार सामाजिक क्षेत्र में काम कर अग्रणी समाजिक संस्था हंस फाउंडेशन और अमेरिका इंडिया फाउंडेशन के सहयोग से यूं तो पिछले दो-तीन साल से डिजिटल इक्वालाइज़र लिट्रेसी प्रोग्राम के तहत पहले ही बच्चों को डिजिटल माध्यम से एडुकेशन देने की पहल चल रही थी. लेकिन तब यह स्कूल में डिजिटल क्लासरूम से दूर बैठे शिक्षक के जरिये संचालित हो रहा था. लेकिन अब लॉक डाउन के चलते तमाम स्कूल बंद हैं. परंपरागत शैक्षिणक गतिविधियां चौपट कही जा सकती है, खास कर अगर सरकारी स्कूलों की बात करें. क्योंकि इंटरनेट और स्मार्ट फोन की पहुंच में हर बच्चा या गांव अभी शामिल नहीं है. लेकिन हंस फाउंडेशन और एआईएफ के सहयोग से देहरादून,अल्मोड़ा, पौड़ी जैसे कुछ जिलों में इस पर छोटे-छोटे स्तर पर काम चल रहा है. इस वक्त भी संस्था के लोग शिक्षकों और बच्चों के बीच संयोजक की भूमिका निभा रहे हैं. जिससे शिक्षक जूनियर से हाई स्कूल स्तर के कुछ बच्चों को व्हाट्सएप, जूम, हैंगआउट, स्काइप जैसे तमाम डिजिटल माध्यमों से अध्ययन और अध्यापन का काम कर रहे हैं. एआईएफ के क्लस्टर कॉर्डिनेटर अरविंद ने बताया कि दोनों संस्थाएं इस वक्त डिजिटल माध्यमों के जरिये बच्चों की शिक्षा को बाधा रहित बनाने के लिए लगातार प्रयास कर रही हैं.इसमें हंस फाउंडेशन वित्तीय मदद दे रही है और अमेरिका इंडिया फाउंडेशन कार्यकारी प्रबन्धन का काम देख रही है. उन्होंने बताया कि संस्था का आगे प्रयास है कि रिमोट एरिया में गरीब बच्चों के लिए स्मार्ट फोन और इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध कराने पर भी विचार चल रहा है. यह संस्थाएं समय-समय पर बच्चों के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखते हुए पेंटिंग, ड्रॉइंग प्रतियोगिताएँ भी आयोजित करती हैं. साथ ही समर सीजन में बच्चों के लिए समर कैम्प आदि का आयोजन कर बच्चों के मानसिक विकास को बढ़ावा देने का प्रयास किया जाता है.  इन दिनों मोबाइल की मद्दद से स्कूली पाठ्यक्रम को कैसे पूरा किया जा रहा है इस पर पाठीसैण सरकारी हाइ स्कूल  की  की छात्रा राखी और वैशाली और रानू ने बताया कि वे ग्रुप में गांव के अन्य बच्चों के साथ टीचर द्वारा दिये गए पाठ्यक्रम का  अध्ययन करती हैं. टीचर इंटरनेट के जरिये फोन पर उन्हें वीडियो काल के माध्यम से  पढ़ा रही हैं. ऐसे ही उनसे सवाल जवाब लिए जाते हैं, होम वर्क दिया जाता उसके बाद आंसरशीट टीचर को भेज दी जाती है. वहीं राजकीय इंटर कॉलेज कांडा के एक शिक्षक शिव चरण सिंह बिष्ट ने बताया कि दोनों संस्थाएं इस दिशा में काम कर रही हैं उन्हें बराबर उनका सहयोग मिल रहा है. उनका प्रयास है कि किसी भी तरह से बच्चों की पढ़ाई जारी  रहनी चाहिए. इसके लिए हम पूरी तरह से सहयोग कर रहे हैं और ये हमारी जिम्मेदारी भी बनती है.

इस तरह यही  डिजिटल माध्यम का उपयोग स्कूली बच्चों के लिए आशा की किरण नजर आ रहा है. इसकी खासियत है कि इंटरनेट से पढ़ाई-लिखाई को कारगर और बाधा रहित बनाने के लिए टीचर्स को भी तैयार होना पड़ता है. यह बहुत जिम्मेदारी का काम है इसमें किसी भी तरह की चूक बड़ा  नुकसान पहुंचा सकती है. क्योंकि वीडियो अपने आप में रिकॉर्ड डाटा है. लेकिन इसके बेसुमार फायदे भी हैं रिकॉर्ड वीडियो बार-बार अध्ययन और अध्यापन के उपयोग में लाया जा सकता है. जो बच्चों को रिवीजन के लिए आसानी से उपलब्ध हो जाता है.

शिक्षक-छात्र कई सौ किलोमीटर की दूरी से दूर-गांव में बैठे बच्चों को मोबाइल फोन, लैपटॉप या कंप्यूटर में इन तमाम एप्लिकेशन के जरिये अध्यापन या अध्ययन करवाया जा रहा है. इस पूरी प्रक्रिया में छात्र-शिक्षक दोनों को कक्षा की तरह पढ़ाई के वक्त पूरा ध्यान देना होता है, क्योंकि सब पारदर्शी  तरीके से होता है और गलती का कोई विकल्प नहीं होता है। इस तरह इस डिजिटल तरीके से पढ़ाई-लिखाई के तरीकों से शिक्षा के क्षेत्र में नए आयाम जोड़ने की शानदार पहल की जा रही है. यह पहल अभी भले छोटे स्तर पर हो रही है लेकिन वक्त की जरूरत को महसूस करते हुए इसे आशा की एक किरण के तौर पर तो देखा ही जाना चाहिए. जिसका लाभ हर बच्चे को मिलना चाहिए, तभी इस तरह की मुहिम की सार्थकता है.