पुस्तक दिवस : किताबों को लेकर अपना फंडा क्लियर है!
पुष्कर सिंह रावत, देहरादून।
स्कूली किताबों से इतर मेरे हाथ में पहली किताब आई थी ‘पराग’। ये एक बाल पत्रिका थी। तब मैं करीब सात साल का था। तभी मेरे पिताजी मुझे मां को गांव से अपने साथ कर्णप्रयाग ले आए थे। वहां सरस्वती शिशु मंदिर में दूसरी कक्षा में मेरा दाखिला करवाया गया। तब गांव के स्कूलों में बच्चे हिंदी पढ़ना काफी अच्छी तरह सीख जाते थे। लिहाजा मुझे भी पराग को पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं हुई। हां शहरी परिवेश से जुड़ी कुछ बातें समझ नहीं आ रही थी। लेकिन कुल मिलाकर पत्रिका रोचक थी, अब उसकी सामग्री मुझे ठीक से याद नहीं। लेकिन कॉमिक किरदार बिल्लु और पिंकी से मैं इसी पत्रिका के जरिए रूबरू हुआ था। उसके बाद तो हर महीने पिताजी पराग लाने लगे। खैर समय बितता गया तो चंपक, नंदन के साथ ही दिनमान, धर्मयुग, खेल सम्राट जैसी पत्रिकाएं पढ़ने को मिलती। कर्णप्रयाग के बाद उत्तरकाशी जिले का बड़कोट हमारा दूसरा ठिकाना था। जहां चौथे दर्जे में मेरा दाखिला हुआ। यहां से कॉमिक बुक की शुरुआत हुई। चाचा चौधरी, राम रहीम, नागराज, सुपर कमांडो ध्रुव, फैंटम, कैप्टन कर्ण जैसे कई किरदार बचपन के किस्सों का हिस्सा बन गए। मैंने एक बार बड़ी मात्रा में कॉमिक्स एकत्र कर ली थी। जिनमें से कुछ खरीदी गई थी, कुछ मांग कर वापस नहीं की गई थी और कुछ टपाई भी गई थी। गर्मी की छुट्टियों में एक घर के बरामदे में इन किताबों को सजा कर कुछ दिनों तक किराये पर भी बच्चों को कॉमिक पढ़ाई गई। हाईस्कूल तक सुमन सौरभ और विज्ञान पत्रिका का साथ रहा। इसी दौरान लुग्दी साहित्य की ओर झुकाव शुरू हो गया। वेदप्रकाश शर्मा, ओमप्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक समेत इस क्षेत्र के हर बड़े नाम से मैं और मेरी मित्रमंडली रूबरू हो चुकी थी। एक तो किशोर वय और ऊपर से जासूसी उपन्यासों का रोमांच, पूरा नशा तारी था हम पर। स्कूल की किताबों के बीच छिपाकर इन्हें पढ़ा जाता था। मेरे हिसाब से अस्सी का पूरा दशक और नब्बे के दशक की शुरूआत इस लोकप्रिय साहित्य का स्वर्णिम काल था। खून भरी मांग, दहेज में पिस्तौल, आवारा कदम जैसे शीर्षक अपनी ओर खींचते थे। इंटर की परीक्षाओं के बाद एक रोज मुझे अपने घर पर लियो टॉलस्टॉय का हिंदी में अनुवादित उपन्यास पुनरूत्थान हाथ लगा। शायद मेरे पिताजी ही इसे लेकर आए थे। इसे पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता ही चला गया। पहली बाद दिमाग से कई पर्दे एक साथ उतरते महसूस हुए। लिखने का अंदाज ही ऐसा था कि मास्को और लेनिनग्राद की सड़कें या गलियां जीवंत हो गई। दिमाग साईबेरियाई जीवन को महसूस करने लगा। नेख्लूदोव और नताशा की प्रेम कहानी ने प्रेम का एक नया और अलहदा एंगल बताया। यहीं से पढ़ने की आदत दूसरी तरफ हुई। फिर गढ़वाल युनिवर्सिटी श्रीनगर पहुंचा तो वहां पुस्तकालय से काफी कुछ पढ़ने को मिला। प्रेमचंद के लगभग सभी उपन्यास, मानसरोवर के बारह खंड। यानी ग्रेजुऐशन करने तक बहुत सी किताबें पढ़ी। उसके बाद उत्तरकाशी पहुंचा तो वहां भी सबसे पहले जिला पुस्तकालय की सदस्यता ली। कुछ पढ़ने वाले बेहतरीन दोस्त भी मिले। लिहाजा बहुत सी किताबें पढ़ ली, लेकिन ये ऐसी भूख है जो कभी खत्म नहीं होती। आज भी लॉकडाउन में दो किताबें पढ़ रहा हूं, रामचंद्र गुहा की भारत, गांधी के बाद और रसूल हमजातोव की मेरा दागिस्तान का पहला खंड। हां एक बात और साफ करना चाहता हूं कि किताबों को लेकर अपना फंडा क्लियर है, जितने भी मेरी पुस्तकों के स्रोत रहे हैं, मैंने वहां किताबों को हासिल करने के लिए उचित और अनुचित दोनों तरीके अपनाए हैं। यानी सीधी तरह से नहीं मिली तो मैंने किताब टपाने में भी कोई कोताही नहीं बरती।