कौन बनेगा कांग्रेस का खेवनहार
मीडिया लाइव, देहरादून : कहते हैं सियासत में कुछ भी स्थायी नहीं होता, ना व्यक्ति और ना ही सत्ता, कभी देश पर राज करने वाली कांग्रेस पार्टी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। अब जब लोकसभा चुनाव नजदीक है तो कांग्रेस जैसी बड़ी राजनीतिक पार्टी भाजपा के खिलाफ महागठबंधन के सहारे अपनी खोई हुई जमीन तलाशती दिख रही है। जाहिर है कि इस समय कांग्रेस अपने दम पर भाजपा को कहीं से चुनौती देने की स्थिति में नहीं है। इसलिये पार्टी के रणनीतिकार समय के तकाजे को देखते हुए महागठबंधन के विचार को मजबूत करने की कोशिश में हैं। राष्ट्रीय राजनीति के साथ ही कमोबेश उत्तराखंड में भी कांग्रेस के यही हाल हैं। राज्य की मौजूदा विधानसभा में मात्र 11 विधायकों के साथ कांग्रेस विपक्ष के तौर पर काफी कमजोर साबित हो रही है। सत्ताधारी पार्टी के संख्याबल के सामने कांग्रेस की ये बेबसी सदन के दौरान कई बार देखी गई है। इस स्थिति को देखकर यहां तक बातें होने लगी कि कांग्रेसी विधायक सदन में भाजपा की नीतियों को विरोध करें भी तो कैसे। जब भी वे सरकार के किसी फैसले का विरोध करते हुए वेल में जाने की कोशिश करते हैं तो उनसे ज्यादा संख्या में उन्हें रोकने वाले मार्शल मुस्तैद रहते है। मोटे तौर पर देखें तो कांग्रेस की इस हालत के लिए उसके नेता खुद जिम्मेदार हैं। आपसी फूट और महत्वाकांक्षाओं से आम पार्टी कार्यकर्ता भी निराश है। नेताओं के अपने अपने कुनबे हैं और पार्टी हित जैसी कोई चीज नजर नहीं आ रही।
पीसीसी के अध्यक्ष प्रीतम सिंह और वरिष्ठ नेता और नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश जहां प्रदेश संगठन को अपने हिसाब से चलाते हुए नजर आ रहे हैं, तो पूर्व मुख्यमंत्री और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हरीश रावत की अपनी ही पार्टी में राह एकदम जुदा है। ये दोनों खेमे जब तब एक दूसरे पर छींटाकशी से बाज नहीं आते, एक दूसरे के कार्यक्रमों से असहज नजर आते हैं और गाहे बगाहे एक दूसरे के खिलाफ खुलकर बयान देने से भी परहेज नहीं करते। हाल ही में श्रीनगर विधानसभा सीट से निर्दलीय चुनाव लड़ चुके कारोबारी मोहन काला के कांग्रेस में शामिल होने के वाकये ने पार्टी की और फजीहत कराई है। इससे नाराज होकर कांग्रेस में बेहतर मुकाम हासिल कर चुके दो बार के विधायक गणेश गोदियाल ने पार्टी की गुटबाजी को और सतह पर ला दिया है। उन्होंने खुलकर इंदिरा हृदयेश पर कांग्रेस को कमजोर करने, भाजपा सरकार से मदद मांगने और पुराने कांग्रेसियों को किनारे लगाने जैसे गंभीर आरोप लगा दिए। लोकसभा चुनाव से ऐन पहले कांग्रेस के लिए इसे शुभ संकेत नहीं माना जा सकता, ऐसे वक्त में जब पार्टी की अगड़ी पांत के नेताओं को कार्यकर्ताओं में जोश भरना चाहिये था, वे अपनी ही खेमेबाजी में उलझे नजर आ रहे हैं। अब सवाल ये है कि उत्तराखंड में कांग्रेस इस स्थिति से बाहर भी आ पाएगी या नहीं, क्या पार्टी के भीतर से ही इस सवाल का जवाब निकलेगा या फिर बाहर से आए किसी करिश्माई नेता के दम पर कांग्रेस इस भंवर से निकल पाएगी। फिलहाल पार्टी के भीतर सर्वमान्य नेता की कमी खल रही है। प्रीतम सिंह भले ही पीसीसी अध्यक्ष बन गए हों, लेकिन बुनियादी रूप से वे अपने विधानसभा क्षेत्र तक ही सीमित हैं, उनके पास पूरे प्रदेश में समर्थकों की फौज नहीं है, यही स्थिति इंदिरा हृदयेश की भी है, यानी अपने विधानसभा क्षेत्र को पकड़ कर दोनों ही प्रदेश की राजनीति करते रहे हैं। पूर्व पीसीसी अध्यक्ष किशोर उपाध्याय फिलहाल खुद की राजनीतिक जमीन के लिए जूझ रहे हैं, ऐसे में पार्टी के इन तीनों शीर्ष नेताओं से बड़े चमत्कार की उम्मीद नहीं की जा सकती, दूसरी पंक्ति के नेताओं में गणेश गोदियाल, राजेंद्र भंडारी, करन माहरा, मदन सिंह बिष्ट, आदि की गिनती होती है, ये सभी नेता भी अपने क्षेत्रों में प्रभाव रखते हैं, लेकिन सियासी समझ और उर्जा के मामले में शीर्ष नेताओं से बेहतर साबित होते रहे हैं। अब बात करते हैं पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की, जो विधानसभा चुनाव की करारी हार को पीछे छोड़ लगातार सामाजिक और सियासी गतिविधियों में शामिल रहे। इस सक्रियता ने उन्हें कांग्रेस पार्टी में राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा मुकाम भी दिला दिया। लेकिन प्रदेश संगठन में काबिज नेताओं के साथ उनकी पटरी मेल नहीं खा रही। अब आने वाले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का खेवनहार की जरूरत है, अगर ऐसा नहीं हुआ तो राज्य की पांचों सीटों पर उसे एक बार फिर मायूस होना पड़ेगा।