फकत कुछ पन्नौं मा सजीं एक जिल्द नी: नरेन्द्र कठैत
“ कै खुणी”
फकत कुछ पन्नौं मा सजीं एक जिल्द नी
हम ज्वी बि काम करदां, वांका पैथर हमारि एक आस होंदि। व आस वे काम पर हमारु मन लगैकि रख्दि। वीं आसा पैथर हम अपड़ा भैर-भितरै साफ-सफै, लिप्ये-पुतै अर च्यूंदा-तबरौंदौं छाणा रंदा। पुंगड़ि-पटलि बाड़ि-सगोड़युं बिटि द्वी कांडि-मेलि एैथरौ बि रै जावुन इलै वूंकि न्यलै-गुडै जब-तब गूणी बांदरु बि हकौंणा रंदा। पर अपड़ा भटुड़ा तुड़ै कि बि हर बार हमारा दिमाग मा घूम-फिरी एक हि बात औंणी रौंदि-“कै खुणी”। क्वी यिं पिड़ा तैं क्वी अफ्वी घुटणु रौंदु। क्वी कै हैंका मा बोली अपड¨ ज्यू हल्कू कर्दु। क्वी गित्वी भौण मा यिं पिड़ा तैं ढळदु। अर क्वी यिं पिड़ा तैं हमारा ऐथर लेखी तैं धर देंदु। इबारि य पिड़ा म्यरा समणी किताब्या रूप मा अयिं च। किताब्यु नौ बि वी च ज्वा बात बग्त-बग्त घूम-फिरी हमारा दिमाग मा औंदि-“कै खुणी” ! यिं किताबी लिख्वार च-“बीना कण्डारी”!
लम्बा बग्त बिटि हमारि बैण्यूं मद्दि एक बैणिन किताब छपौणु तैं अपड़¨ सांसु भ्वरि। यां खुणी भुली बीना कण्डारी तैं बधै ! वुन त बीना कण्डारी गढ़वालि कबितौं मा नयु नौ नी। पर “कै खुणी” वूंकि पैली किताब च ज्यां मा वूंकि कति छुटि-बड़ि कबिता एक हि जगा पढ़णु मिल्नि। पढ़णा बाद मैसूस ह्वे कि “कै खुणी” फकत कुछ पन्नौं मा सजीं एक जिल्द नी बल्कि पाड़ै दुरदसा, दुख-दर्द, पिड़न भ्वरीं एक कुटेरि च कसमसौंणी।
“कै खुणी” पलटौंदि-पलटौंदि कुछेक पंगत्यु पर जब नजर जांदि त वा वक्खि ठैरीं रै जांदि। गौं मा छुट्यां हमारा बूड बुढ् यों का आंसु थमैणा नीन किलैकि ‘धीरज हर्चे दौड़ा-भागी पैसा ह्वे गिन ब्वे बुबा/ पिड़ा, खैरी आंसु अपणु ब्वाला “कै खुणी”। घौर गौं कि तसबीर देखी लग्दु कि यु पाड़ क्य छौ अब क्य ह्वेगि। रूखा डांडा, गौं खाली देखी तैं बीनन् लेखी- ‘गौंकि हैरयाली तैं लगनी कैकि गाली/जगा-जगा ढक्यां द्वार, जगा-जगा ताली। गौं मा कु रयां, जु गरीब छन। गरीब गता अर चिरीं लता। जरा वूंकि हालात बि देखा दि, जिकुड़या कथगा गैरे बिटि सब्द अयांन- बरखा की झमणाट/टप्प-टप/च्यूंदि कूड़ि/कबारि इनै/कबारि उन्नै/कृटुट्युं खटुला रड़कांद/जबारि झप्प कै/आंख्यू मा निंद आंद। खेती-पाती अरे ! वु त अब नौ हि नौ कि रयिं भैजी! देख ल्यादि दि जामलु जख्या जामलु घास/रुखड़ा पुंगड़ा कांड़ों की डालि/ब्यालि तलक छै दादी कि गालि/सुणीं त छै अब देखि बि याली। अर डालि-बूटी ज्वी जरा लोपा होणी, लोग्वी नजर वीं हि डालि-बूटी पर चल जाणी। डालि बोट्युं कि फौंकि क्य वूंका टुक्खू बि काट यनि। डालि-बूटी कटेंणी त एक ना कति हौरि समस्या हमारा ऐथर दैंत सि छन खड़ि होणी-डालि दगड़ि बूटि जु कटेंदि जाणी/पाणी दगड़ि जमीन बि बटेंदि जाणी।
मां-बैण्युं का निब्त त सरकार अर सरकार सि भ्यार भौत बथ छौंक्येणी रंदन। लाड-प्यार मा बि तौंकु तैं क्वी कमी नी। पर जरा आंखा-कंदूड़ खोली देखा दि। वा सोच हमारि हो चा हमारि दै-ददी। वा हमारि जिकुड़ि मा आज बि वक्खि अटकीं। बीना कण्डारीन् वा सोच कथगा गैरै सि देखी ह्वलि, सब्द्वी गैरै देखी पता चल्दि ददीन मी/भल्लि कै नवाई धुवाई/झगंलि धगुलि पैनाई/कृमलासि मुलेसि कि/बोल हि द्याई/अहा! इबार लड़िक हुंदू तकृ./म्यार कुंगलु मना ल/ झस्स कै द्या। अर वेका बाद पालि-पोसी बि च त परायु धन माणी। नौनी बोझ नी फिर्बि ब्वे-बुबै निंद उडीं। किलैकि जै घौर वींन जाण वखै अलग छन गाणि-स्याणी। यि भौ बीना कण्डारी हि लै सक्दि। कि जब बेटि हूंद ज्वान/जिकुड़ि रैंद हथ पर/मुंड मा मुंडारौ/हर्चि जांद निंद/अर भूख नमान।
कत्युं कि एक हि रट लगायिं रौंदि -बिकास, बिकास अर बिकास! पर इन बि नी कि पाड़ मा बिकास नि पौंछि। बिकासा पैथर त अब हमारा गौर भैंसौं पर्बि छकण्यां अकल ऐ गि। गाड़ि-मोटरु देखी अर तौंकु घ्वींघ्याट सूणी अब सि बिदगदा नी। ‘नै युग का विकास मा/गौर-बरखा डांडौं नि चरदा/सड़क्यूं ढीसि अर तीरि/बिना बोल्यां छालों लगदा।’ पर मनख्युं का बीच ये बिकासै एक तसबीर इन बि देखी ‘रिफाइण्ड अर बनस्पति घ्यू/ठेकि रौडी नी/हिंस्वला-किनग्वड़ा त अज्यूं बि छैं च/ पर पच्याणा लदौड़ी नी। बात बि सहि च कि ज्वा बचीं-खुचीं जिंदगी रयिं बि च त वा बि बैध-डौक्टरु अर दवायुं पर टिकीं। असल मा, बिकास तैं जख पौंछुण चऐणु छौ वु वख पौंछि नी। बिकास तैं कति दौं य बात बतलये बि गि। यूं पुंगड़यूं मा बीज जमाण वला हौर छन/खाण वला हौरि कमाण वला हौरि छन।’ पर जनि बिकास तौंकि तिरपां कुछ कनू नजर उठौणु वेका ऐथर चकड़ैत खड़ा ह्वे जाणा छन। ‘चतुरों कि चालाक दुन्या मा/काणा गूंगा कैन नि द्याखा/उच्चा उच्चा महल दिखीं पण/नींव का ढुंगा कैन नि द्याखा।
यिं बात तैं बि हर क्वी जण्दन कि गिच्चन न बीज जम्दन न खेती होंदि। पर ‘क्वी गिच्ची अर गिच्ची मा झणि कतगै कमै जांद/क्वी हौर्यूं तैं खीर अफु खिचड़ि खयूं रै जांद। अर खौरि खै कि ज्यु मारि क्य मिली । आज हालत इन ह्वे गेनी कि ‘गंगा जी की धार रुंदी हिमगिरि लगाणु धाई!/सब कुछ बणाई हमुन! अपणु मुल्क नि बणाई।’ बिस्वास नि होणु त जरा अपड़ा ये लाटा-काला पूछ ल्या ! लाखा बे लाखा-हां जी हां/उत्तराखण्ड मा तिन कुछ द्याखा/ना जी ना/ बेरोजगारी हां जी हां/ कम नी होणी ना जी ना। पर समझौण कै तैं कपाल्यूं नौ मुंड । फिर्बि वु हमारि मां-बैणी, ब्यटि-ब्वारि छन जु हमारि दुख तकतीफ छन बिंगणी। अर इन बोली सारु बि छन देणी- ’औ भैजी छज्जा छवाड़ /छवाड़ किलै बैठ्यां छयां उदास। किलैकि छज्जा मा गुमसुम सोच फिकर मा कपाळ पकड़ी कुछ नि होण।
ये बीच भौत कुछ हर्चि पर अज्यूं बि मिल्णै उम्मीद बि कम नी। इन बि नी कि कूणा-कूणौं बिटि अन्ध्यारु छंट्ये गि। उम्मीद अबि जगीं च बुझी नी। बरसौं बिटि रांकि जळणी जगदै जा जगदै जा/अन्ध्यारा कूणा जन्या तनि, द्यख्दे जा द्यख्दे जा। समझ्ण वलौं कु भौत कुछ च “कै खुणी”। आज न सहि त भोळ कै न कै पर त सुध जरूर आलि भुली! अपड़ा ये माटै दुख तकलीफ, पिड़ा अगनै बि इनि बिंगाणी रै!! एक बार फेर छक्वे बधै!
ये हि बाटौ एक बट्वे!
– नरेन्द्र कठैत
24 जुलै 2017