हे दिल्ली वळा द्यूरा, त्यारा भैजी भी दिखेंदन त्वे कभी आंदा जांदा…
रोजगार और बेहतर जिंदगी की तलाश का ठिकाना है दिल्ली। घर गांव से दूर सपनों को सजाने नाम है दिल्ली। धन्य है दिल्ली, जिसने अपने दिल में देश को बसा रखा है। हिंदुस्तान के हर कोने से लोग रोजाना इस शहर का रुख करते हैं। दिल्ली की ओर होने वाले इस जन बहाव में उत्तराखंड के लोगों की भी बड़ी तादाद है। पहाड़ के लगभग हर गांव का दिल्ली कनेक्शन है। हम बचपन में ही दिल्ली जाने के इस शगल से रूबरू हो गए थे। दिल्ली की दौड़ती भागती जिंदगी के किस्सों से हम खूब रोमांचित होते थे। बच्चे ही नहीं बल्कि हर कोई इस रोमांच को महसूस करता था। हाड़ तोड़ मेहनत के बीच सबको लगता था कि पहाड़ के उस पार खुला आसमान है, जिसके नीचे खुशनुमा संसार बसता है। शायद इसीलिए एक गढ़वाली लोकगीत में एक ब्याहता अपने पति से कहती है- कब आलो मंगसीर मैना, स्वामी जी मैंन दिल्ली जाणा। यहां के लोकजीवन से निकला ये गीत दिल्ली को लेकर लोगों के खिंचाव को दिखाता है। भले ही दिल्ली जाने के बाद ये भ्रम टूट जाता है। लेकिन उसे बनाए रखना भी दिल्ली जाने वाले की मजबूरी हो जाती है। ज्यादातर कामगार लोग दिल्ली में रोजमर्रा के जीवन संघर्ष में बुरी तरह फंस कर रह जाते हैं। दिल्ली कई मायने में लोगों के बीच दूरियां बढ़ा देती है। एक मकान में रहने वाले एक ही गांव के लोगों को आपस में बातचीत की भी फुर्सत नहीं होती। और ऐसे में दंगे हो जाएं तो हालात का अंदाजा लगाया जा सकता है। पिछले दिनों भी ऐसा ही हुआ, दंगे के कारण दिल्ली दर्द का दरिया बनकर रह गई। उधर दिल्ली जल रही थी और इधर दिल बैठे जा रहे थे। फिर खबर आई कि गढ़वाल के एक युवक को भी दंगा लील गया। अपने परिवार के भरण पोषण को दिल्ली पहुंचे इस युवक का कसूर कुछ भी नहीं था।इन दंगों में ना तो कोई विरोधी मरा और ना ही समर्थक, मौत ऐसे लोगों के हिस्से आई, जिनको अपने परिवार पालने की जद्दोजहद से इतर कोई दूसरा सरोकार नहीं था। इस दौरान हर उस परिवार की बेचैनी बढ़ी हुई थी, जिसका कोई अपना दिल्ली में था। पहाड़ की संवेदनाओं पर गहरी पकड़ रखने वाले महान लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने ऐसी ही बेचैनी को एक गीत के जरिए पेश किया है;- हे दिल्ली वळा द्यूरा तेरा भैजी भी दिखेंदन त्वे कभी आंदा, जांदा,,,चौंठी मा तिल वाळी बौजी, होंदू क्वी अता पता भैजीकु त् खोजी ल्यांदा..(हे दिल्ली वाले देवर, कभी आते जाते तुझे तेरे भैया भी दिखते हैं,,ठोडी पर तिल वाली भाभी जी भैया का कुछ अता पता हो तो उन्हें जरूर खोज कर ले आता)। ऐसी बेचैनी पहाड़ ही नहीं देश के हर उस घर गांव, शहर कस्बे में है जहां से लोग दिल्ली के तनाव से जूझ रहे हैं।