विकास मेरे शहर का : क्योंकि विकास का बाप भी खुश है…

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हमारी तमाम चिंताओं के बीच- पौड़ी शहर के लिए एक अच्छी खबर है। कि ऋषिकेश से कर्णप्रयाग के बीच भविष्य में दौड़ने वाली- रेल पथ का कार्य प्रगति पर है। किंतु ये पुख्ता खबर है कि रेल पौड़ी नहीं पहुंचेगी। लेकिन कुछ लोगों को पक्का विश्वास है कि- पौड़ी शहर तक रेल न सही ‘विकास’ की रफ्तार जरूर गति पकड़ेगी! ‘विकास’ का बाप भी खुश है कि चलो अब तो‘विकास’ लौटेगा।

हालांकि देवप्रयाग के छोर से पहले भी पौड़ी के ‘विकास’ को लाने का प्रयास हुआ था। लेकिन वो सफल नहीं हुआ था। आपको भी तो याद होगा कि वर्षों पहले देवप्रयाग में अलकनंदा और भागीरथी के संगम के बाद गंगा पर एक पुल बना था -जो टूट गया था। कह नहीं सकते पुल की नींव कमजोर थी या वहाँ पानी या हवा का बहाव ज्यादा था।

अफवाएं उड़ी! अफवाएं उड़ती ही हैं उनका क्या? किसी ने कहा- ‘ये पुल टूटा नहीं, तोड़ा गया। ये ‘ऋषिकेश’ और ‘कोटद्वार’ के बनियों की आपकी खींचतान का नतीजा था। ‘ऋषिकेश’ का बनिया चाहता था कि पुल हर हाल में बने और उसका माल ‘पौड़ी’ तक पहुंचे। और ‘कोटद्वार’ का बनिया चाहता था कि पौड़ी से उसकी व्यापारिक साख बनी रहे। और पुल न बने।’

क्या पुल टूटने की जाँच कमेटी बैठी? बैठी तो कब उठी? मालूम नहीं। लेकिन पुल की लाभ-हानि पर चर्चाएं बराबर होती रही। किसी ने कहा- ‘कोटद्वार से जो गोभी दस रूपये में पौड़ी पहुँचती है वह ऋषिकेश से पाँच रूपये में पौड़ी पहुंचेगी। पुल से हमें फायदा ही था लेकिन कोटद्वार के बनियों ने रूकावट पैदा कर दी’। लेकिन इंही चर्चाकार चाचाओं के बीच गंगा पर दो लेन का नया पुल बना। उसने बनना ही था-क्योंकि वो चर्चाकार चाचाओं के कब्जे में नहीं, व्यवस्था के अधीन था। ऋषिकेश की ओर से भी पौड़ी की ओर लोहा-लकड़ के साथ सब्जी राशन धड़ाधड़ पहुँचने लगा। किंतु गंगा नदी पर इस पुल के बन जाने से कोटद्वार का बनिया भी भूखा नहीं मरा। कोटद्वार की ओर से भी पौड़ी के लिए माल वैसे ही आता रहा -जैसे वो पहले आता था।

ऐसे में पौड़ी के कुछेक लोगों का ये सवाल उठाना भी वाजिब है कि सब्जी-गेहूँ-चावल ऋषिकेश से भी आ रहा है और कोटद्वार से भी आ रहा है-जैसे वो वहाँ से पहले से ही आ रहा था। लेकिन अगर पौड़ी में ‘विकास’ नहीं है -तो फिर ये दो-दो जगह की राशन सब्जी कौन खा रहा है? क्या इसमें भी कोई गोलमाल है या पौड़ी के नाम का यह माल कोई और ही चट कर जा रहा है?’

किंतु विकास को पता है-ऐसे सवाल, ऐसी चर्चाओं से व्यापार न घटता है न और बढ़ता है। उसे ये भी अच्छी तरह पता है कि ‘विकास’ मजदूरों के बल पर खड़ा होता है। ‘विकास’ प्रखर बुद्धि के बल पर नहीं बल्कि श्रम शक्ति से फलता फूलता है। और श्रम शक्ति के बल पर ही ‘विकास’ अपने फेफड़ों में हवा भरता है। लेकिन सवाल ये है कि हम ‘विकास’ की दौड़ में पिछड़ कहाॅं रहे है?

बंधुओं! पुल बन जाने के – बाद की ही ये घटना है।
साल कौन सा था वो तो याद नहीं है। कोटखाल से नीचे एक मोड़ पर वाहन में टमाटरों की पेटियों को लदते देखकर रुक गया। वाहन चालक स्थानीय था। वो थोड़ी दूर पर बीड़ी धौंक रहा था। लेकिन टमाटर की पेटियों को जो आदमी तरकीब से वाहन में रख रहा था- वो नेपाली मूल का मालूम पड़ता था। उन टमाटर की पेटियों और मेरे बीच सबसे नजदीक वही था। मैंने उससे पूछा -दाज्यू! ये टमाटर क्या पौड़ी जा रहे?

उसने जवाब दिया -‘जी नहीं!’

– ‘तो ये टमाटर पौड़ी नहीं कोटद्वार जाएंगे!’

– ‘यहां से लगभग एक सौ बीस किलोमीटर दूर कोटद्वार क्यों? यहीं नजदीक पौड़ी शहर क्यों नहीं? खपत तो टमाटर की पौड़ी शहर में भी है ही।’

– ‘पौड़ी भेजा था जी! पिछले महीने! लेकिन वहाॅं बिका ही नहीं! सबने कहा तुमने तो लूट मचा रखी है।’

– ‘पौड़ी में कितने में बेच रहे थे?’

– ‘दस रुपये किलो!’

– ‘और कोटद्वार से कितना मिलता?’

– ‘अभी तक तीस रुपये किलो के लगभग मिल रहा है जी!’

– ‘बढिया है!’

– ‘सब्जी कोटद्वार भेजकर मुझे तो मुनाफा ही होता है।’

– ‘अब तो भेजो पौड़ी! अब वहां चालीस रूपये किलो है।’

– ‘नहीं जी! मुसीबत में वो काम आए-अब उन्हें छोड़ना ठीक नही।’

– ‘हां आपका ये कहना भी सही है।’

-‘लेकिन साब! पौड़ी के लोगों को देखकर बड़ी दया आती है।’

मैंने चौंककर पूछा- ‘क्यों?’

-‘क्योंकि साब! पौड़ी में कोटद्वार से वही टमाटर आता है। और पौड़ी का आदमी उस टमाटर को चालीस रुपये में खाता है।’

सोच में पड़ गया कि कौन सी चक्की का पिसा आटा खाते हैं हम पौड़ी वासी? चक्की में दोष है या आटे में ही है खराबी? पुल से गुजरते हुए हम हर बार गंगा को नमन करते हैं- जय हो गंगा मैया की! कभी किसी ने पूछा -‘अरे ‘विकास’ तू कैसा है भाई?’

खैर जहाँ उसको उस पार इतने बरस गुजर गए -वहाँ कुछ दिन और सही। व्यवस्था भी ‘विकास’ को पौड़ी से कनैक्ट करवाने के लिए युद्ध स्तर पर लगातार प्रयास कर रही है। गंगा को स्पर्श करते हुए रेल पथ का कार्य भी प्रगति पर है। ये व्यवस्था की ही दूरदृष्टि है कि उसने भी सोचा है- कि पौड़ी शहर का भी अगर धुवाँधार ‘विकास’ करना है तो उसे ऋषिकेश – कर्णप्रयाग रेल मार्ग से भी कनेक्ट करना है।

उधर हाल फिलहाल उस रेल पथ के आसपास भी ‘विकास’ नजर नहीं आ रहा है। कोई कहता है- वह बद्रीनाथ की ओर बढ़ गया है। कोई कहता है- पौड़ी का ‘विकास’ वहीं धूल उड़ा रहा है। कोई कहता है कि पौड़ी का ‘विकास’ वहाँ धूल खा रहा है। ऐसा भी नहीं कह सकते कि यह मात्र अफवाह है। क्योंकि धूल तो उड़ ही रहा है। और धूल भी-यूं अकारण नहीं उठता है। वहाँ धूल इतनी उड़ रही है कि वास्तव में वहाँ पौड़ी का ‘विकास’ अभी नजर नहीं आ रहा है। इसलिए हर कोई अटकलें लगा रहा है।

हकीकत यह है कि इस रेल पथ पर देवप्रयाग के समीप पौड़ी की ओर सौड़ गाँव भी एक सब स्टेशन है। जिसका डंपिंग यार्ड देवप्रयाग से पौड़ी को जोड़ने वाली इसी सड़क पर लगभग सात किलोमीटर ऊपर बकरोड़ा, पयालगाँव और सिराला की साझी जमीन पर पौड़ी की ओर है।

इसी सड़क पर आगे बढ़ते एक दो जगह निर्माण विभाग के स्लोगन दिखे। जिनपर लिखा है- ‘देखकर हर दम ,जिन्दगी नहीं मिलती हर दम’ तथा ‘कृपया धीरे चलें, आगे तीव्र मोड़ है।’ लेकिन इस सड़क पर धीरे- धीरे चलने में भी खतरे कम नहीं हैं।

खतरे इस सड़क पर ही नहीं बल्कि इसके आस-पास खड़े कई हेक्टेयर में खड़े उन पेड़ पौधों और जीव जंतुओं पर भी मंडरा रहे हैं- जो महिनो से भारी भरकम डंपरों के आवागमन से उठती धूल का सामना कर रहे हैं। ठीक है-‘विकास’ के लिए हम हर एक कष्ट सहन कर सकते हैं। लेकिन ये पेड़ पौधे तो ठीक से हवा भी नहीं ले सकते हैं। हालाँकि यदा कदा इस सड़क पर टैंकर पानी का छिड़काव करते दिख जाते हैं लेकिन लगातार चलते डम्परों की धूल का मुकाबला एक आद पानी के टैंकर कैसे कर सकते हैं? एक बात और है कि पहाड़ पर सुरंगों, गड्ढों के एस्टिमेट बन सकते हैं। कार्य समय पर पूरा न होने पर एस्टिमेट रिवाइज हो सकते हैं। लेकिन जीव-जगत और पर्यावरण के प्रति हम इतने लापरवाह क्यों हैं?

देख रहा हूँ धूल धूसरित सूखी बेजान पत्तियाँ चबाते बंदर, लंगूर, पशु! सहसा सड़क के एक मोड़ पर एकटिन शेड पर लिखा हुआ पढ़ा। लिखा था- ‘अंग्रेजी शराब की दुकान!’ सोचा इस सुनसान सड़क पर शराब की दुकान का क्या काम? क्यों और किस उद्देश्य से खुला होगा यहाँ ये प्रतिष्ठान?’

बहरहाल! इधर हमारे सर पर धूल भरा आसमान भी आश्वस्त है कि जरूर लौटेगा मेरे शहर का विकास! लेेकिन इसकी क्या गारंटी कि तब भी लड़खड़ाते हुए नहीं पहुंचेगा मेरे शहर का विकास!’

 

नरेंद्र कठैत की फेसबुक से ….