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कोई भी देश वही अख़बार पाता है, जिसके वह योग्य होता है

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हिंदी पत्रकारिता ने प्रश्नवाचकता, सच्चाई को जानने की कोशिश और वैचारिक सघनता इतनी तेजी से गंवाई है कि आश्चर्य होता है

अशोक वाजपेयी: प्रकाशित – 24 मार्च 2019
‘अपने बारे में कुछ जानने के लिए सबके बारे में सब कुछ जानना चाहिये.’

दब्बू हिंदी मीडिया: एक हिंदी पत्रकार की स्मृति में आयोजित वार्षिक परिचर्चा इस बार हिंदी मीडिया के तथाकथित दब्बू युग पर केंद्रित थी. पिछले पांचेक बरसों में विशेष कर अख़बारी पत्रकारिता में सत्ता, हिन्दुत्व आदि के प्रति जो वफ़ादारी व्यापक हुई है, उसका एक बड़ा कारण तो यह है कि अख़बार इन दिनों पाठकों के आधार पर नहीं विज्ञापनों के बूते चलते हैं और जब सत्तारूढ़ कई पृष्ठों के विज्ञापन दे रहे हों तो एक तरह की वफ़ादारी की मांग साथ में होगी यह बार-बार साफ़ होता रहा है. हिंदी पत्रकारिता ने अपनी प्रश्नवाचकता, सच्चाई को जानने और सामने लाने की कोशिश, प्रामाणिकता की खोज, वैचारिक सघनता, जनहित और सत्य के लिए प्रतिबद्धता इतने व्यापक पैमाने पर गंवा दी है कि आश्चर्य होता है, बेहद खेद के अलावा.
इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता में भले प्रायः सभी हिन्दी-अंग्रेज़ी चैनल गोदी में बैठकर मुदित हों, उसके और वेब स्तर पर रवीश कुमार, पुण्य प्रसून वाजपेयी,अभिसार शर्मा, विनोद दुआ जैसे हिंदी के निर्भीक एंकर अपनी आवाज़ उठा रहे हैं. अंग्रेज़ी में ऐसे एंकर कम हैं. लेकिन अंग्रेज़ी में ‘हिंदू’, ‘इंडियन एक्सप्रेस’, ‘टेलीग्राफ़’, ‘देक्कन हेराल्ड’ जैसे अख़बार, ‘वायर’, ‘स्क्रोल’, ‘सत्याग्रह’ जैसी वेब जगहें हैं, जहां प्रश्नवाचकता और खोज की भावना सक्रिय है. हिंदी में एक भी अख़बार नहीं है, तथा कथित राष्ट्रीय स्तर का, जिसे निर्भीक और उदार मूल्यों के लिए प्रतिबद्ध, प्रश्नवाचक कहा जा सके. मोटे तौर पर हिंदी मीडिया से विचारों की विदाई हो चुकी है और अब शायद ही किसी हिंदी अख़बार का सम्पादकीय पठनीय और विचारोत्तेजक रह गया है.

बुद्धिजीवी और पत्रकार जार्ज आर्वेल ने दशकों पहले यह कहा था कि कोई भी देश वही अख़बार पाता है जिसके वह योग्य होता है. इस दृष्टि से देखें तो क्या करोड़ों की संख्या में फैला हुआ हिंदी पाठक इतना कुन्दज़हन, इतना तंगदिल, इतना विचार-विमुख, इतना एकात्मवादी हो गया है कि उसे सिर्फ़ ऐसे ही अख़बार मिल सकते हैं जो कि उसे मिल रहे हैं? स्थानीय स्तर पर निश्चय ही अपवाद हैं पर ऊपर जो सामान्यीकरण किये गये हैं वे संशोधित या अप्रामाणिक नहीं हो जाते.

सच तो यह है कि हिंदी पत्रकारिता में व्यापक रूप से कोई ऐसा संपादक नहीं है जिसे अज्ञेय, रघुवीर सहाय जैसे लेखक-संपादकों या राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी, ओम थानवी जैसे पत्रकार-संपादकों के समकक्ष रखा जा सके. यह निरा बौद्धिक उतार नहीं है. इसके साथ ही हिंदी भाषा के साथ सबसे अधिक और अबाधित अनाचार, इन दिनों, हिंदी मीडिया ही कर रहा है. कोई अख़बार नहीं बचा जिसमें साफ़-सुथरी हिंदी, बिना सत्ता की या प्रभु-भाषा अंग्रेज़ी की दब्बू बने, देखी जा सके. अख़बार हिंदी विवेक, बहुलता, विचार आदि सभी से धड़ल्ले से विश्वासघात कर रहे हैं. यह मीडिया अगर हिंदी साहित्य को नज़रंदाज करता है तो इसका कारण यह है कि वहां विवेक, साहस, प्रश्नवाचकता, सत्ता का प्रतिरोध मुख्य तत्व हैं, जिनसे अब हिंदी मीडिया बहुत दूर चला गया है. यह कहना अनुचित न होगा कि आज हिंदी साहित्य हिंदी समाज और पत्रकारिता दोनों का सांस्कृतिक और शायद राजनैतिक प्रतिपक्ष है.

यह सामग्री इस लिंक सी ली गई है:- (https://satyagrah.scroll.in/article/126604/kabhi-kabhar-by-ashok-vajpeyi-24-march-2019)

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